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सोमवार व्रत कथा | Somwar Vrat Katha | 16 सोमवार व्रत कथा | 16 Somvar vrat katha

सोमवार व्रत कथा | Somwar Vrat Katha | 16 सोमवार व्रत कथा | 16 Somvar vrat katha


सोमवार का व्रत भगवान शिव को समर्पित है। यह व्रत भक्तों की मनोकामना पूर्ति करने के साथ सुख शांति और समृद्धि प्रदान करता है।
भगवान शिव को भोलेनाथ कहा जाता है क्योंकि वे अपने भक्तों की भक्ति से शीघ्र प्रसन्न होकर वरदान दे देते हैं।
आइए सुनते हैं सोमवार व्रत की पौराणिक कथा।

बहुत समय पहले, एक छोटे से गांव में एक निर्धन ब्राह्मण अपने परिवार के साथ रहता था। वह अत्यंत धर्मपरायण और ईमानदार व्यक्ति था।

वह वेदों का ज्ञाता था और गांव वालों को पूजा पाठ कराने में सहायता करता था। हालांकि उसकी आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय थी।
उसके पास इतना धन नहीं था कि वह अपने परिवार का सही ढंग से पालन पोषण कर सके।

ब्राह्मण रोज सुबह उठकर भगवान शिव की पूजा करता और उनके समक्ष प्रार्थना करता: "हे महादेव! आप दीनों के सहायक हैं। कृपया मेरी दरिद्रता दूर कीजिए और मुझे ऐसा साधन दीजिए जिससे मैं अपने परिवार का भरण पोषण कर सकूं।"

उसकी भक्ति और समर्पण को देखकर गांव के लोग उसका सम्मान तो करते थे, लेकिन उसकी मदद करने में असमर्थ थे।
एक दिन जब उसकी पत्नी ने भोजन के लिए घर में अन्न का अभाव देखा, तो वह अत्यंत दुखी हो गई।

उसने ब्राह्मण से कहा: "स्वामी, हम रोज भगवान की पूजा करते हैं, लेकिन हमारी स्थिति दिन प्रतिदिन खराब होती जा रही है। क्या भगवान शिव हमारी प्रार्थना नहीं सुनते?"

ब्राह्मण ने उत्तर दिया: "देवी, भगवान शिव तो करुणा निधान हैं। वे अवश्य हमारी सहायता करेंगे। हमें धैर्य और श्रद्धा बनाए रखनी चाहिए।"

उसी रात ब्राह्मण ने भगवान शिव का स्मरण करते हुए उपवास रखा। वह शिवलिंग के समक्ष बैठकर ध्यानमग्न हो गया।
आधी रात को जब वह ध्यान में लीन था, तभी एक अद्भुत घटना घटी। शिवजी अपने दिव्य स्वरूप में प्रकट हुए।

उनके सिर पर चंद्रमा विराजमान था, गले में नागों की माला थी, और उनका तेज ऐसा था कि पूरा कमरा प्रकाश मय हो गया।
शिवजी ने ब्राह्मण से कहा: "वत्स, मैं तुम्हारी भक्ति और समर्पण से अत्यंत प्रसन्न हूं। तुम जो भी चाहते हो, मुझसे मांगो।"
ब्राह्मण ने विनम्रता से उत्तर दिया: "हे भोलेनाथ, मेरी एकमात्र इच्छा है कि मैं अपने परिवार का पालन पोषण सही ढंग से कर सकूं और मेरी दरिद्रता समाप्त हो जाए।"

शिवजी ने मुस्कुराते हुए कहा: "वत्स तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हें एक उपाय बताता हूं। हर सोमवार को व्रत रखो और मेरी पूजा करो। इस व्रत को पूरी श्रद्धा और नियम से करना। इससे तुम्हारे सभी कष्ट दूर होंगे और तुम्हें समृद्धि प्राप्त होगी।"

ब्राह्मण ने शिव जी से विनम्रता से पूछा। प्रभु, इस व्रत को कैसे किया जाता है, इसकी विधि क्या है?
इसके बाद शिवजी ने ब्राह्मण को सोमवार व्रत की विधि विस्तार से बताई। उन्होंने बताया की:
  1. सोमवार के दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान करके साफ वस्त्र धारण करो।
  2. शिवलिंग पर जल बेल पत्र अक्षत और दूध अर्पित करो।
  3. भगवान शिव का ध्यान करते हुए "ओम नमः शिवाय" मंत्र का जाप करो।
  4. पूरे दिन निराहार रहो और सायं काल भगवान शिव की आरती करो।
  5. ब्राह्मणों और जरूरतमंदों को भोजन कराओ।

शिवजी ने यह भी बताया कि व्रत के प्रभाव से न केवल उसकी दरिद्रता समाप्त होगी, बल्कि वह आध्यात्मिक रूप से भी प्रगति करेगा। यह कहकर भगवान शिव अंतर्धान हो गए।

अगले दिन ब्राह्मण ने पूरी विधि के साथ सोमवार का व्रत रखा। उसने शिवलिंग की पूजा की, "ओम नमः शिवाय" मंत्र का जाप किया, और पूरे दिन उपवास रखा।

उसकी भक्ति और समर्पण को देखकर गांव वाले भी प्रेरित हुए। व्रत समाप्त होने के बाद, उसने जरूरतमंदों को भोजन कराया और अपने घर लौटा।

उस रात उसने सपने में देखा कि भगवान शिव उसके घर के बाहर खड़े हैं और उनके हाथ में सोने से भरा एक पात्र है।
शिवजी ने कहा: "यह पात्र मैं तुम्हें वरदान स्वरूप दे रहा हूं। इसमें जो भी अन्न या धन रखोगे, वह कभी समाप्त नहीं होगा।"
जब ब्राह्मण जागा, तो उसने पाया कि सचमुच उसके घर के बाहर एक दिव्य पात्र रखा हुआ था। वह अत्यंत प्रसन्न हुआ और भगवान शिव का धन्यवाद करने लगा।

दिव्य पात्र के माध्यम से ब्राह्मण की दरिद्रता समाप्त हो गई। अब उसका जीवन पूरी तरह से बदल चुका था। उसका घर धन धान्य से भर गया, और परिवार में सुख शांति का वातावरण बन गया।

लेकिन ब्राह्मण ने अपनी समृद्धि को केवल अपने तक सीमित नहीं रखा। उसने भगवान शिव के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए समाज की सेवा का मार्ग अपनाया।

ब्राह्मण ने गांव में एक शिवालय बनवाया, जहां हर सोमवार को भव्य पूजा और भंडारे का आयोजन होने लगा। उसकी सेवा और दान शीलता ने गांव वालों का जीवन भी बदल दिया। हर कोई उसे सम्मान और श्रद्धा की दृष्टि से देखने लगा।
इस तरह उसकी प्रसिद्धि दूर दूर तक फैलने लगी।

ब्राह्मण की समृद्धि और बढ़ता हुआ सम्मान देखकर गांव के कुछ लोग ईर्ष्या करने लगे।
उनमें से एक धनवान व्यापारी, जिसका नाम दामोदर था, विशेष रूप से असंतुष्ट था।

दामोदर स्वभाव से लालची और अहंकारी था। उसे ब्राह्मण की लोकप्रियता और उसका परोपकारी स्वभाव पसंद नहीं था।
वह सोचता था: यह निर्धन ब्राह्मण अचानक इतना संपन्न कैसे हो गया? पहले इसे कोई जानता भी नहीं था, लेकिन अब गांव का हर व्यक्ति इसकी प्रशंसा कर रहा है। मुझे इसका रहस्य पता लगाना होगा।

दामोदर ने अपनी योजना के तहत ब्राह्मण से मित्रता करने का नाटक किया।
उसने ब्राह्मण से कहा: "पंडित जी, आपकी सेवा और परोपकार देखकर मुझे बहुत खुशी होती है। मैं आपकी सफलता का रहस्य जानना चाहता हूं ताकि मैं भी आपकी तरह समाज के लिए कुछ अच्छा कर सकूं।"

ब्राह्मण ने बिना किसी शंका के उसे अपनी कहानी सुनाई और बताया कि यह सब भगवान शिव के आशीर्वाद और उनके दिए हुए दिव्य पात्र का फल है।

दामोदर ने ब्राह्मण की कहानी सुनकर सोचा:
"यदि मुझे वह दिव्य पात्र मिल जाए, तो मैं सबसे अधिक धनवान बन जाऊंगा।
मुझे अब इसे किसी भी तरह प्राप्त करना होगा।"

उसने एक रात ब्राह्मण के घर में चोरी करने की योजना बनाई। जब सभी सो रहे थे, दामोदर ने चुपके से ब्राह्मण के घर में प्रवेश किया और वह दिव्य पात्र चुरा लिया।

दामोदर उस पात्र को लेकर अत्यंत प्रसन्न हुआ और उसे अपने घर में रख दिया। उसने पात्र में धन और आभूषण रखे और उसे देखकर खुश होने लगा।

लेकिन उसे इस बात का ज्ञान नहीं था कि वह पात्र केवल सच्चे भक्तों और परोपकारी लोगों के लिए ही फलदायी होता है।
दिव्य पात्र का स्वभाव ऐसा था कि वह केवल शिव भक्तों की सहायता करता था। दामोदर की लालच और स्वार्थ ने पात्र को निष्क्रिय बना दिया। जिस धन को उसने पात्र में रखा था, वह धीरे धीरे नष्ट होने लगा। इसके साथ ही, दामोदर के व्यापार में भी हानि होने लगी। उसके परिवार में कलह बढ़ गई, और उसकी स्थिति दयनीय हो गई।

दामोदर को यह समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यों हो रहा है। उसने कई उपाय किए, लेकिन उसका दुर्भाग्य समाप्त नहीं हुआ। आखिरकार, उसे एहसास हुआ कि यह सब उसके लालच और चोरी का परिणाम है।

दामोदर ने महसूस किया कि ब्राह्मण का दिव्य पात्र भगवान शिव के आशीर्वाद से ही फलदायी था।
उसने अपनी गलती मानते हुए भगवान शिव से प्रार्थना की:
"हे महादेव, मुझसे बड़ी भूल हो गई। मैंने लालच के वश होकर आपके प्रिय भक्त का धन चुराया। कृपया मुझे क्षमा करें और मुझे सही मार्ग दिखाएं।"

शिवजी ने उसकी प्रार्थना सुनी और स्वप्न में उसे दर्शन दिए।
उन्होंने कहा: "दामोदर, यह दिव्य पात्र सच्चे भक्तों और परोपकारियों के लिए है।
तुम्हारे स्वार्थ और लोभ ने इसे निष्क्रिय बना दिया। यदि तुम सच्चे मन से प्रायश्चित करना चाहते हो, तो इसे वापस लौटाओ और अपनी गलती को स्वीकार करो। साथ ही, दूसरों की सेवा का प्रण करो।"

दामोदर ने सुबह उठते ही ब्राह्मण के घर जाकर अपना अपराध स्वीकार किया। उसने ब्राह्मण से माफी मांगी और दिव्य पात्र वापस लौटा दिया।

ब्राह्मण ने उसे क्षमा कर दिया और उसे भगवान शिव के प्रति श्रद्धा रखने की सलाह दी।
इसके बाद, दामोदर ने अपने जीवन में बड़ा परिवर्तन किया। उसने लालच और अहंकार का त्याग कर दिया और समाज सेवा का मार्ग अपनाया।

उसने भी सोमवार व्रत करना शुरू कर दिया और भगवान शिव की पूजा में लीन हो गया। ब्राह्मण की भक्ति और सेवा ने पूरे गांव को भगवान शिव की भक्ति के मार्ग पर प्रेरित किया।

अब गांव के अधिकांश लोग सोमवार व्रत रखने लगे और एकता और परोपकार का संदेश फैलाने लगे। गांव में कलह समाप्त हो गया और सभी में प्रेम और सौहार्द्र का भाव पैदा हुआ।

ब्राह्मण ने दामोदर को भी अपने साथ शिवालय में पूजा अर्चना करने का अवसर दिया। अब दोनों मिलकर समाज सेवा करते थे और भगवान शिव का गुणगान करते थे।

कुछ समय बाद, ब्राह्मण को स्वप्न में भगवान शिव ने दर्शन दिए और कहा: "वत्स, तुमने मेरे दिए हुए दिव्य पात्र का सदुपयोग किया और अपनी भक्ति और सेवा से मुझे प्रसन्न किया। अब समय आ गया है कि यह पात्र अपने दिव्य लोक में वापस लौट जाए।
अब तुम्हारे जीवन में स्थायी समृद्धि बनी रहेगी और तुम्हें इसकी आवश्यकता नहीं पड़ेगी।" अगली सुबह ब्राह्मण ने देखा कि दिव्य पात्र अदृश्य हो चुका था।

वह यह देखकर दुखी नहीं हुआ, क्योंकि उसे विश्वास था कि भगवान शिव ने उसे अपनी भक्ति से हमेशा के लिए आशीर्वादित कर दिया है।

ब्राह्मण के जीवन में दिव्य पात्र की विदाई के बाद भी उसकी भक्ति और समर्पण में कोई कमी नहीं आई। गांव में शिव भक्ति और सोमवार व्रत का महत्व अब हर किसी के जीवन का हिस्सा बन चुका था।

हर सोमवार को गांव के शिवालय में भव्य पूजा और भजन कीर्तन होते थे। धीरे धीरे आसपास के गांवों में भी इस व्रत की महिमा फैलने लगी।

लेकिन जब भी जीवन में एक सकारात्मक बदलाव होता है, तो उसके साथ नई चुनौतियां भी आती हैं। ब्राह्मण और गांव वालों की शिव भक्ति और उन्नति देखकर कुछ असुर शक्तियां असंतुष्ट हो गईं। वे इस बात से क्रोधित थीं कि भगवान शिव ने अपने भक्तों को वरदान देकर उन्हें कष्टों से मुक्त कर दिया।

इन असुरों का प्रमुख राक्षस, दैत्य राज काल-केश, भगवान शिव का शत्रु था। वह शिव भक्तों को परेशान करने के लिए योजनाएं बनाने लगा। उसने अपनी सेना को बुलाया और कहा: "यह ब्राह्मण और उसका गांव भगवान शिव की भक्ति में लीन है।
हमें इन्हें सबक सिखाना होगा और इनकी भक्ति को तोड़ना होगा।"

दैत्य-राज ने अपनी शक्ति से गांव में अकाल लाने का प्रयास किया। वर्षा रुक गई, फसलें सूखने लगीं, और गांव के जलाशयों में पानी की कमी हो गई। लोग भयभीत हो गए, लेकिन उनकी आस्था डगमगाई नहीं।

ब्राह्मण ने गांव वासियों को समझाया: "यह भगवान शिव की परीक्षा है। हमें धैर्य और भक्ति बनाए रखनी होगी। हर सोमवार को व्रत करते रहो और भगवान शिव से प्रार्थना करो।"

ब्राह्मण की भक्ति और गांव वालों की अडिग श्रद्धा देखकर भगवान शिव प्रसन्न हुए। उन्होंने ब्राह्मण को स्वप्न में दर्शन दिए और कहा:
"वत्स, यह समय परीक्षा का है। असुर तुम्हारी भक्ति को नष्ट करने के लिए बाधाएं उत्पन्न कर रहे हैं। लेकिन तुम घबराओ मत। मेरी भक्ति में दृढ़ रहो और पूरे गांव को एकजुट रखो। मैं शीघ्र ही इस समस्या का समाधान करूंगा।"

भगवान शिव ने यह भी कहा कि गांव में सभी लोग सामूहिक रूप से रुद्राभिषेक का आयोजन करें। इस अनुष्ठान के प्रभाव से असुर शक्तियां कमजोर हो जाएंगी।

ब्राह्मण ने भगवान शिव के निर्देशानुसार गांव में सामूहिक रुद्राभिषेक का आयोजन किया। सभी गांव वासी, बच्चे, वृद्ध, और युवा मिलकर इस पूजा में शामिल हुए। शिवालय में घंटों तक "ओम् नमः शिवाय" मंत्र का जाप और अभिषेक किया गया।
जैसे ही अभिषेक संपन्न हुआ, आसमान में काले बादल छा गए, और तेज वर्षा होने लगी। सूखी पड़ी भूमि फिर से हरी भरी हो गई। गांव के जलाशय भर गए, और सभी को राहत मिली।

कालकेश को यह सब देखकर अत्यधिक क्रोध आया। उसने खुद गांव पर आक्रमण करने का निर्णय लिया। वह अपनी सेना के साथ गांव पहुंचा और विनाश करने का प्रयास किया।

लेकिन जैसे ही उसने शिवालय की ओर कदम बढ़ाया, शिवजी के गण, नंदी और भैरव, प्रकट हो गए।
नंदी और भैरव ने असुर सेना को नष्ट कर दिया। कालकेश भी शिवजी के गणों की शक्ति के आगे टिक नहीं सका।

उसने भगवान शिव से क्षमा मांगी और कहा: "हे महादेव, मुझे क्षमा करें। मैंने आपकी शक्ति को कम समझा। अब मैं भी आपकी भक्ति में लीन हो जाऊंगा।"

भगवान शिव ने उसे क्षमा कर दिया और उसे धर्म के मार्ग पर चलने का आदेश दिया।

असुरों के पराजित होने के बाद गांव में शांति और समृद्धि लौट आई। गांव वाले भगवान शिव का आभार प्रकट करने के लिए एक भव्य मंदिर बनाने का निर्णय लिया। ब्राह्मण ने इस कार्य का नेतृत्व किया, और शिवालय को और भी भव्य रूप दिया गया।
अब गांव शिव भक्ति का एक प्रमुख केंद्र बन चुका था। दूर दूर से लोग यहां भगवान शिव का आशीर्वाद लेने आने लगे। हर सोमवार को यहां भक्तों की भीड़ उमड़ने लगी।

ब्राह्मण ने अपना पूरा जीवन भगवान शिव की भक्ति और समाज सेवा में व्यतीत किया। उसने गांव वालों को सिखाया कि जीवन में सच्ची समृद्धि भक्ति, सेवा, और परोपकार से ही आती है।

एक दिन जब ब्राह्मण ध्यान में लीन था, भगवान शिव ने उसे अपने लोक में बुलाने का निर्णय लिया।

शिवजी ने उसे दर्शन दिए और कहा: "वत्स, तुम्हारा यह जन्म पूरा हुआ। तुम्हारी भक्ति और सेवा से मैं अत्यंत प्रसन्न हूं।
अब समय आ गया है कि तुम मेरे शिव लोक में आकर अनंत सुख का अनुभव करो।"

ब्राह्मण ने विनम्रता से भगवान शिव को प्रणाम किया और शांति पूर्वक उनका साथ शिव लोक को प्रस्थान कर गया।
सोमवार व्रत की यह पौराणिक कथा हमें सिखाती है कि भगवान शिव की भक्ति में असाधारण शक्ति है।

शिव अपने भक्तों की सच्ची प्रार्थना अवश्य सुनते हैं और उनकी सहायता करते हैं। सच्ची श्रद्धा, धैर्य, और निष्ठा के साथ की गई पूजा से सभी बाधाएं दूर हो सकती हैं।

यह कथा यह भी बताती है कि भगवान शिव अपने भक्तों की हर स्थिति में रक्षा करते हैं और उन्हें अपने आशीर्वाद से कृतार्थ करते हैं।
प्रेम से बोलो "जय शिव शंकर ओम् नमः शिवाय"

सोमवार व्रत कथा | Somwar Vrat Katha | 16 सोमवार व्रत कथा | 16 Somvar vrat katha


प्राचीन समय की बात है, किसी नगर में एक साहूकार रहता था। वह अत्यंत धनी था और उसके पास धन दौलत, नौकर चाकर और ऐश्वर्य की कोई कमी नहीं थी। लेकिन उसके जीवन में एक बड़ी कमी थी – संतान का न होना। इस कारण वह और उसकी पत्नी हमेशा दुखी रहते थे।

संतानों की प्राप्ति के लिए साहूकार ने अनेक उपाय किए, लेकिन सफलता नहीं मिली। अंततः उसने भगवान शिव की आराधना करने का निश्चय किया।

हर सोमवार को साहूकार पूरे नियम और श्रद्धा के साथ व्रत रखता और नजदीकी शिव मंदिर जाकर भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा करता। वह शिवलिंग पर जल बेल पत्र धतूरा और चंदन चढ़ाकर मन ही मन अपनी व्यथा सुनाता।

उसकी प्रार्थना सच्चे हृदय से होती थी, और उसकी श्रद्धा में कोई कमी नहीं थी। धीरे धीरे साहूकार का यह क्रम सालों तक चलता रहा। साहूकार की इस अनवरत भक्ति को देखकर माता पार्वती प्रसन्न हो गईं।

एक दिन उन्होंने भगवान शिव से साहूकार की भक्ति और उसकी व्यथा का जिक्र किया। उन्होंने कहा, “हे स्वामी, वह साहूकार अत्यंत भक्ति और श्रद्धा से आपकी पूजा करता है। उसकी मनोकामना पूर्ण करनी चाहिए।”

भगवान शिव ने उत्तर दिया, “हे पार्वती, संसार में हर प्राणी को उसके कर्मों का फल मिलता है। यह साहूकार भी अपने पूर्व जन्मों के कर्मों का फल भोग रहा है। इसके भाग्य में संतान सुख नहीं लिखा है।”

लेकिन माता पार्वती का हृदय द्रवित हो चुका था। उन्होंने फिर से भगवान शिव से निवेदन किया, “हे महादेव, उसकी भक्ति सच्ची है और उसने वर्षों तक आपकी उपासना की है। कृपया उसकी प्रार्थना को स्वीकार करें।”

माता पार्वती के बार बार आग्रह करने पर भगवान शिव ने अंततः साहूकार की मनोकामना पूर्ण करने का निर्णय लिया। उन्होंने कहा, “हे पार्वती, मैं उसे संतान का वरदान दूंगा, लेकिन उसकी आयु केवल 12 वर्ष की होगी।” माता पार्वती ने इसे सहर्ष स्वीकार किया।

साहूकार ने भगवान शिव और माता पार्वती के संवाद को सुन लिया था। उसे पता चल चुका था कि उसे पुत्र की प्राप्ति तो होगी, लेकिन उसकी आयु केवल 12 वर्ष की होगी। साहूकार को यह सुनकर न अधिक प्रसन्नता हुई और न ही दुख। उसने इसे भगवान की इच्छा मानकर स्वीकार कर लिया और अपनी भक्ति पूर्ववत् जारी रखी।

कुछ समय बाद साहूकार के घर एक पुत्र का जन्म हुआ। पुत्र जन्म से उसका घर खुशियों से भर गया। साहूकार और उसकी पत्नी ने उस बालक का पालन पोषण बड़े ही प्रेम और स्नेह के साथ किया। वह बालक तेजस्वी और बुद्धिमान था। उसकी हँसी खुशी से घर का वातावरण हमेशा आनंदित रहता था।

लेकिन साहूकार को हमेशा यह चिंता सताती थी कि उसके पुत्र की आयु केवल 12 वर्ष की है। जब बालक ग्यारह वर्ष का हुआ, तो साहूकार ने उसे विद्या प्राप्ति के लिए काशी भेजने का निर्णय लिया।

उसने अपनी पत्नी के छोटे भाई, जो बालक का मामा था, को बुलाया और बहुत सारा धन देकर कहा, “इस बालक को काशी ले जाओ और वहाँ इसकी शिक्षा का प्रबंध करो। मार्ग में यज्ञ कराते जाना और ब्राह्मणों को भोजन व दक्षिणा देना।”

मामा भांजे दोनों काशी की यात्रा पर निकल पड़े। साहूकार ने जिस प्रकार निर्देश दिया था, उसी प्रकार वे मार्ग में यज्ञ कराते और ब्राह्मणों को दान दक्षिणा देते हुए आगे बढ़े। इस प्रकार वे काशी की ओर अग्रसर थे।

यात्रा के दौरान एक नगर में उन्हें रात्रि विश्राम के लिए रुकना पड़ा। उस नगर में उस समय राजा की पुत्री का विवाह होने वाला था।
लेकिन विवाह में एक बड़ी समस्या उत्पन्न हो गई थी। जिस राजकुमार से राजकुमारी का विवाह तय हुआ था, वह एक आंख से काना था। राजकुमार के पिता इस सच्चाई को छिपाना चाहते थे। उन्होंने सोचा कि क्यों न साहूकार के पुत्र को अस्थायी रूप से दूल्हा बना दिया जाए।

इसके बाद राजकुमारी का विवाह सम्पन्न कराकर उसे विदा कर देंगे। राजा ने साहूकार के पुत्र को बुलाकर उसे समझाया और उसे दूल्हा बनने के लिए तैयार कर लिया। साहूकार के पुत्र को दूल्हे के वस्त्र पहनाकर विवाह मंडप में भेजा गया। विवाह विधि विधान से सम्पन्न हुआ।

साहूकार का पुत्र सत्यनिष्ठ और ईमानदार था। उसे यह सारा घटनाक्रम सही नहीं लगा। उसने सोचा कि राजकुमारी को सच्चाई का पता चलना चाहिए। इसलिए उसने अवसर पाकर राजकुमारी के दुपट्टे पर एक संदेश लिख दिया।

उसमें लिखा था, “तुम्हारा विवाह मुझसे हुआ है, लेकिन जिस राजकुमार के संग तुम्हें विदा किया जाएगा, वह एक आंख से काना है।
मैं काशी पढ़ाई के लिए जा रहा हूं।”

जब राजकुमारी ने यह संदेश पढ़ा, तो वह हैरान रह गई। उसने तुरंत यह बात अपने माता पिता को बताई। राजा ने स्थिति समझी और अपनी पुत्री को विदा करने से मना कर दिया। इसके बाद वह बारात खाली हाथ लौट गई।

इधर साहूकार का पुत्र और उसका मामा अपनी यात्रा पर आगे बढ़ते हुए काशी पहुंचे। काशी में उन्होंने यज्ञ का आयोजन किया और वहां की परंपराओं के अनुसार ब्राह्मणों को भोजन और दक्षिणा दी।

बालक अपनी पढ़ाई में जुट गया और मामा ने उसके लिए हर संभव प्रबंध किया। जिस दिन साहूकार का पुत्र 12 वर्ष का हुआ, उस दिन भी यज्ञ का आयोजन किया गया।

बालक ने अपने मामा से कहा, “मामा, मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही है।” मामा ने उसे आराम करने के लिए कहा और स्वयं यज्ञ की देखभाल में लग गए। भगवान शिव द्वारा दिया गया वरदान समाप्त हो चुका था। कुछ ही देर में बालक ने अपने प्राण त्याग दिए।

जब मामा ने अपने भांजे को मृत देखा, तो वह फूट फूटकर रोने लगा। उसने अपने भांजे को गोद में लेकर विलाप करना शुरू कर दिया। उसकी करूण पुकार चारों ओर गूंजने लगी।

संयोगवश उसी समय भगवान शिव और माता पार्वती उस मार्ग से गुजर रहे थे। जब माता पार्वती ने मामा की करुण पुकार सुनी, तो उनका मातृ हृदय द्रवित हो उठा।

उन्होंने तुरंत भगवान शिव से कहा, “हे महादेव, इस व्यक्ति का विलाप सहा नहीं जा रहा है। कृपा करके इस बालक के प्राण वापस लौटा दें। इस साहूकार ने आपकी वर्षों तक सच्ची श्रद्धा और भक्ति की है। क्या उसकी भक्ति का फल यह होना चाहिए कि उसका एकमात्र पुत्र उससे छीन लिया जाए?”

भगवान शिव ने उत्तर दिया, “हे पार्वती, मैंने पहले ही इस बालक को 12 वर्षों की आयु का वरदान दिया था। यह उसकी नियति है।
संसार में प्रत्येक जीव को अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है। यदि मैं इस बालक के प्राण वापस कर दूं, तो यह संसार के नियमों का उल्लंघन होगा।”

लेकिन माता पार्वती अडिग थीं। उन्होंने कहा, “हे स्वामी, आपकी महिमा अनंत है। आप संसार के रचयिता और विनाशक हैं।
यदि आप चाहें, तो इस बालक को नया जीवन दे सकते हैं।

इस साहूकार और उसकी पत्नी ने आपके प्रति जो श्रद्धा और समर्पण दिखाया है, वह अनमोल है। कृपया इस बालक के प्राण वापस करके इस परिवार को कष्ट से मुक्त करें।”

माता पार्वती के आग्रह को देखकर भगवान शिव ने बालक के मृत शरीर की ओर देखा और अपनी त्रिशूल की नोक से उसके माथे पर स्पर्श किया।

शिवजी के स्पर्श से मृत बालक का शरीर एक बार फिर से जीवित हो उठा। उसकी सांसें लौट आईं और उसने अपनी आंखें खोल दीं।
बालक को जीवित देखकर उसके मामा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा।

उसने भगवान शिव और माता पार्वती को बार बार धन्यवाद दिया और उनके चरणों में गिरकर उन्हें प्रणाम किया। भगवान शिव ने बालक के मामा से कहा, “इस बालक को मैंने नया जीवन दिया है।

अब इसकी आयु लंबी होगी, लेकिन याद रहे कि इसे सदैव धर्म और सत्य के मार्ग पर चलने की शिक्षा देना।” इसके बाद भगवान शिव और माता पार्वती अदृश्य हो गए।

बालक के जीवित होने के बाद, मामा ने काशी में उसकी शिक्षा को फिर से आरंभ किया। बालक ने काशी में वेद शास्त्र और अन्य विद्याओं का अध्ययन किया। वह तेजस्वी और कुशाग्र बुद्धि का धनी था।

गुरुजनों ने उसकी प्रशंसा की और उसे आशीर्वाद दिया। शिक्षा पूरी करने के बाद बालक और उसका मामा अपने नगर लौटने के लिए तैयार हो गए।

जब बालक और उसका मामा अपने नगर की ओर लौट रहे थे, तो रास्ते में वे उसी नगर में पहुंचे, जहां उसका विवाह संपन्न हुआ था।
उस नगर में पहुँचने पर उन्होंने एक बार फिर यज्ञ का आयोजन किया।

यज्ञ के आयोजन के दौरान नगर के राजा को साहूकार के पुत्र के आगमन का समाचार मिला। राजा ने उसे पहचान लिया और अपने महल में बुलवाया।

राजा ने बालक का आदर सत्कार किया और कहा, “हे वीर, तुमने सत्य और धर्म का मार्ग अपनाकर हमारे परिवार को अपमान से बचाया। मैं आज अपनी पुत्री को तुम्हारे साथ स-सम्मान विदा करना चाहता हूं।”

राजा ने अपनी पुत्री को बुलाया और विधि-विधान से उसका साहूकार के पुत्र के साथ पुनर्विवाह कराया। राजकुमारी ने अपने पति को देखते ही पहचान लिया और अपने माता पिता का आभार व्यक्त किया।

इसके बाद राजा ने अपनी पुत्री को दहेज और उपहारों के साथ विदा किया। साहूकार का पुत्र और उसकी पत्नी अब अपने नगर की ओर बढ़ चले। इधर साहूकार और उसकी पत्नी अपने पुत्र के लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने संकल्प कर रखा था कि यदि उनके पुत्र की मृत्यु का समाचार आया, तो वे भी प्राण त्याग देंगे।

लेकिन जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि उनका पुत्र जीवित है और वह घर लौट रहा है, तो उनकी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा।
उन्होंने भगवान शिव और माता पार्वती का बार बार धन्यवाद किया।

साहूकार और उसकी पत्नी वर्षों से जिस पल की प्रतीक्षा कर रहे थे, वह अंततः आ ही गया। जब उन्होंने अपने पुत्र को नगर की सीमा में प्रवेश करते देखा, तो उनकी आंखों में खुशी के आंसू छलक उठे।

साहूकार ने अपनी पुत्र वधू का भी पूरे हर्षोल्लास के साथ स्वागत किया। नगर वासियों ने भी इस पुनर्मिलन पर हर्ष व्यक्त किया और भगवान शिव की महिमा का गान किया।

साहूकार ने भगवान शिव और माता पार्वती के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए एक भव्य यज्ञ का आयोजन किया। इस यज्ञ में पूरे नगर को आमंत्रित किया गया। यज्ञ के उपरांत उन्होंने निर्धनों को दान दिया और ब्राह्मणों को भोजन करवाया।

इस घटना के पश्चात साहूकार और उसका परिवार भगवान शिव के प्रति और अधिक श्रद्धालु हो गया। साहूकार ने सोमवार के व्रत का महत्व समझा और इसे नगरवासियों के बीच प्रचारित किया। उसने बताया कि भगवान शिव और माता पार्वती की कृपा से असंभव को भी संभव बनाया जा सकता है।

साहूकार ने नगरवासियों को सोमवार व्रत की विधि समझाई। उसने कहा, “जो भी व्यक्ति सच्चे मन से भगवान शिव की आराधना करता है और सोमवार का व्रत रखता है, उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।

यह व्रत न केवल लौकिक सुख प्रदान करता है, बल्कि आत्मिक शांति भी देता है।” सोमवार व्रत के प्रभाव से जीवन के सभी कष्ट दूर होते हैं। यह व्रत कुंवारी कन्याओं को योग्य वर प्राप्त करने में सहायक होता है। विवाहित महिलाएं इसे अपने परिवार की सुख शांति और समृद्धि के लिए करती हैं। भगवान शिव की कृपा से असाध्य रोग भी समाप्त हो जाते हैं और व्यक्ति को दीर्घायु का आशीर्वाद प्राप्त होता है।

सोमवार व्रत की इस कथा से यह सीख मिलती है कि भक्ति और श्रद्धा से भगवान को प्रसन्न किया जा सकता है।
साहूकार की भक्ति और माता पार्वती के करुणा भाव ने यह सिद्ध कर दिया कि सच्चे भक्त के जीवन में कितनी भी बाधाएं क्यों न आएं, भगवान शिव और माता पार्वती उनकी रक्षा अवश्य करते हैं।

इस प्रकार सोमवार व्रत की कथा पूर्ण होती है। आशा है कि इस कथा से आप सभी भक्तों को भगवान शिव की महिमा का अनुभव होगा और आपके जीवन में भक्ति का मार्ग और प्रबल होगा।

जय शिव शंकर! ॐ नमः शिवाय!


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