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श्रीमद्भागवत गीता में है जीवन का सार | Shrimadbhagwad Geeta | Geeta Gyan | Gita Pravachan

श्रीमद्भागवत गीता न केवल एक धार्मिक ग्रंथ है, बल्कि यह जीवन के गहन रहस्यों और मूल्यों को समझाने वाला अद्वितीय मार्गदर्शक भी है। 700 श्लोकों और 18 अध्यायों में विभाजित यह ग्रंथ मानव जीवन की सभी समस्याओं और दुविधाओं का समाधान प्रस्तुत करता है। श्रीमद्भागवत गीता का प्रत्येक अध्याय एक गूढ़ सत्य को उजागर करता है और जीवन को सही दिशा देने का प्रयास करता है।

गीता का दिव्य स्वरूप: श्रीमद्भागवत गीता में है जीवन का सार

भगवद्गीता के महत्व को स्वयं भगवान विष्णु ने माता लक्ष्मी से वर्णन करते हुए कहा है:

  1. गीता के पांच अध्याय मेरे मुख हैं,
  2. दस अध्याय मेरी भुजा हैं,
  3. सोलहवां अध्याय मेरा हृदय, मन और उदर है।
  4. सत्रहवां अध्याय मेरी जंघा है,
  5. अठारहवां अध्याय मेरे चरण हैं।
  6. गीता के श्लोक मेरी नाड़ियां हैं।
  7. गीता के अक्षर मेरा रोम-रोम हैं।

यह दिव्य कथन गीता के अनंत महत्त्व को उजागर करता है। गीता केवल ग्रंथ नहीं, बल्कि यह स्वयं भगवान के स्वरूप की प्रतीक है। इसमें छिपे गूढ़ अर्थों को समझने से मनुष्य जीवन के उद्देश्य को पहचान सकता है।


पहला अध्याय: अर्जुन विषाद योग

गीता का पहला अध्याय, "अर्जुन विषाद योग," मानवीय भावनाओं और संकटों का चित्रण है। महाभारत के युद्धभूमि में, अर्जुन दुविधा में पड़ जाते हैं। अपने ही सगे संबंधियों, गुरुओं, और मित्रों के विरुद्ध युद्ध करने की स्थिति में अर्जुन का हृदय करुणा और मोह से भर जाता है।

उन्होंने अपना धनुष गांडीव रख दिया और श्रीकृष्ण से मार्गदर्शन की प्रार्थना की। इस अध्याय में दर्शाया गया है कि जब मनुष्य मोह, अज्ञान और भय में फंस जाता है, तो उसकी निर्णय शक्ति कमजोर हो जाती है। अर्जुन की इस मानसिक अवस्था को "विषाद" कहा गया है। विषाद का अर्थ है गहरी उदासी और दुविधा।

श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि यह मोह और विषाद किसी भी कार्य को करने में सबसे बड़ा बाधक है। जीवन में जब कोई बड़ी चुनौती आती है, तो मनुष्य को अपने कर्तव्य को समझना चाहिए और बिना किसी भय या मोह के अपने कर्म पथ पर आगे बढ़ना चाहिए।


दूसरा अध्याय: सांख्य योग

दूसरा अध्याय, जिसे "सांख्य योग" कहा जाता है, गीता का सबसे महत्वपूर्ण अध्याय है। यह अध्याय गीता का सार प्रस्तुत करता है।

श्रीकृष्ण कहते हैं:

"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।"

अर्थात्, "तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने पर है, फल पर नहीं।"

श्रीकृष्ण ने इस अध्याय में अर्जुन को कर्मयोग का मूल सिद्धांत सिखाया। उन्होंने कहा कि मनुष्य को फल की चिंता किए बिना अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। जब व्यक्ति अपने कर्मों के परिणाम के बारे में सोचता है, तो वह भटक जाता है और उसका ध्यान कार्य की गुणवत्ता से हट जाता है।

सांख्य योग में दुखों के कारणों की विस्तार से चर्चा की गई है। श्रीकृष्ण ने कहा कि दुख का मूल कारण मनुष्य का अज्ञान और मोह है। मनुष्य संसार की अस्थायी वस्तुओं से आसक्त होकर दुखों में फंस जाता है। लेकिन जब वह ज्ञान और आत्मा की सच्चाई को समझ लेता है, तो वह मोह और दुख से मुक्त हो जाता है।


निष्काम कर्म की व्याख्या

इस अध्याय का एक और महत्वपूर्ण पहलू है निष्काम कर्म। निष्काम कर्म का अर्थ है बिना किसी फल की आशा किए हुए कर्म करना। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि फल की आसक्ति ही मानव के दुखों का कारण है। यदि मनुष्य फल की चिंता छोड़ दे और केवल अपने कर्तव्यों को पूरे मनोयोग से करे, तो वह जीवन में सुख और शांति पा सकता है।

निष्काम कर्म का उदाहरण देते हुए श्रीकृष्ण ने कहा कि जैसे सूर्य बिना किसी स्वार्थ के सभी को प्रकाश देता है और नदी बिना किसी अपेक्षा के सभी को जल देती है, उसी प्रकार मनुष्य को भी अपने कर्मों को बिना किसी स्वार्थ या अपेक्षा के करना चाहिए।


कर्मयोग: जीवन का आधार

श्रीमद्भागवत गीता का मुख्य संदेश कर्मयोग है। कर्मयोग केवल कर्म करने की शिक्षा नहीं देता, बल्कि यह सिखाता है कि हमें कैसे कर्म करना चाहिए। श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया कि व्यक्ति को हर कार्य निष्काम भाव से करना चाहिए। जब व्यक्ति बिना किसी स्वार्थ के और पूरी ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाता है, तो उसे अपने जीवन का वास्तविक आनंद मिलता है।


तीसरा अध्याय: कर्म योग

तीसरा अध्याय "कर्म योग" गीता का एक और महत्वपूर्ण अध्याय है। इसमें श्रीकृष्ण ने कर्म की महिमा का वर्णन किया है। उन्होंने कहा कि संसार के प्रत्येक प्राणी को कर्म करना चाहिए। कोई भी व्यक्ति कर्म किए बिना नहीं रह सकता।

"न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।"

अर्थात्, "कोई भी व्यक्ति एक क्षण के लिए भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता।"

श्रीकृष्ण ने बताया कि कर्म न केवल जीवन का नियम है, बल्कि यह प्रकृति का भी नियम है। जैसे पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती रहती है, हवा निरंतर चलती रहती है और सूर्य हर दिन उदय और अस्त होता है, उसी प्रकार मनुष्य को भी निरंतर कर्म करना चाहिए।

कर्म योग में यह भी बताया गया है कि जब व्यक्ति अपने कर्मों को भगवान को समर्पित कर देता है, तो उसके जीवन में संतोष और शांति आती है। जब तक व्यक्ति स्वार्थ और अहंकार से भरा रहता है, तब तक वह शांति प्राप्त नहीं कर सकता।


ज्ञानयोग और भक्ति योग का महत्व

गीता के अन्य अध्यायों में "ज्ञानयोग" और "भक्ति योग" का वर्णन मिलता है।

  • ज्ञानयोग: इसमें श्रीकृष्ण ने आत्मा और परमात्मा के सत्य का ज्ञान दिया है। उन्होंने कहा कि आत्मा अमर और अविनाशी है। शरीर नाशवान है, लेकिन आत्मा कभी नष्ट नहीं होती।
  • भक्ति योग: इसमें श्रीकृष्ण ने भक्ति के महत्व पर जोर दिया है। उन्होंने कहा कि जो व्यक्ति अपने सभी कर्मों को भगवान को अर्पित कर देता है और भगवान में पूर्ण विश्वास रखता है, वह जीवन में सच्ची शांति प्राप्त करता है।

मोह और संशय का अंत

गीता में श्रीकृष्ण ने बार-बार इस बात पर जोर दिया कि जीवन में मोह और संशय सबसे बड़े शत्रु हैं।

"संशयात्मा विनश्यति।"

अर्थात्, "संदेह करने वाला व्यक्ति नष्ट हो जाता है।"

जब व्यक्ति के मन में संदेह होता है, तो वह किसी भी कार्य को सही तरीके से नहीं कर पाता। इसलिए श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि वह अपने सभी संशयों को त्याग कर कर्म पथ पर आगे बढ़े।


गीता का आदर्श जीवन संदेश

श्रीमद्भागवत गीता का संदेश हर युग और हर परिस्थिति में प्रासंगिक है। यह हमें सिखाती है कि जीवन में किसी भी प्रकार की परिस्थिति क्यों न हो, हमें अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।

गीता कहती है कि "व्यक्ति को अपने जीवन के उद्देश्य को पहचानना चाहिए। मनुष्य को अपने कर्मों को भगवान को समर्पित करना चाहिए। मोह, अज्ञान और संशय से मुक्त होकर, केवल निष्काम भाव से कर्म करना चाहिए।"


ध्यान योग (अध्याय 6)

गीता का छठा अध्याय "ध्यान योग" है, जिसमें श्रीकृष्ण ने ध्यान के महत्व और उसकी विधि का वर्णन किया है। ध्यान आत्मा की शुद्धि और मानसिक शांति के लिए आवश्यक है। इसमें श्रीकृष्ण कहते हैं कि ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपने मन और आत्मा को नियंत्रित कर सकता है।


ध्यान योग के मुख्य बिंदु:

  • मन की स्थिरता: ध्यान के लिए आवश्यक है कि मन को शांत और स्थिर रखा जाए।
  • संतुलित जीवन: ध्यान योग सिखाता है कि जीवन में संतुलन बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है। न बहुत अधिक भोग में लिप्त होना चाहिए, न अत्यधिक त्याग करना चाहिए।
  • आत्मा का अनुभव: ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपनी आत्मा का साक्षात्कार कर सकता है और भगवान के साथ एकत्व का अनुभव कर सकता है।

श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा,

"युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।"

अर्थात, "संतुलित आहार, व्यवहार और कार्य करने वाले व्यक्ति के लिए योग दुःखों को समाप्त करता है।"

ध्यान योग यह संदेश देता है कि आत्मा की शुद्धि के लिए व्यक्ति को अपनी इंद्रियों और मन को संयमित रखना चाहिए। यही जीवन को शांति और उद्देश्य प्रदान करता है।


ज्ञान-विज्ञान योग (अध्याय 7)

इस अध्याय में ज्ञान और विज्ञान को विस्तार से समझाया गया है।

  • ज्ञान: यह आत्मा और ब्रह्म के बारे में गहरी समझ है।
  • विज्ञान: यह उस ज्ञान का व्यावहारिक अनुभव है।

श्रीकृष्ण ने कहा कि केवल सैद्धांतिक ज्ञान पर्याप्त नहीं है। जब तक व्यक्ति अपने ज्ञान को जीवन में उतारता नहीं, तब तक वह आत्मा के सत्य को नहीं समझ सकता।

उन्होंने कहा कि जो व्यक्ति भक्ति, ध्यान और ज्ञान के मार्ग पर चलता है, वह भगवान को समझ सकता है। इस अध्याय का मुख्य संदेश है कि ज्ञान को अनुभव के साथ जोड़कर ही जीवन का सही अर्थ पाया जा सकता है।


राज विद्या राज योग (अध्याय 9)

"राज विद्या राज योग" गीता का नवां अध्याय है, जिसे गीता के हृदय के रूप में जाना जाता है। इसमें श्रीकृष्ण ने भक्ति योग और भगवान के प्रति समर्पण की महिमा का वर्णन किया है।

उन्होंने कहा,

"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।"

अर्थात, "जो व्यक्ति अनन्य भाव से मेरा चिंतन और उपासना करता है, उसके योग और क्षेम (आवश्यकता और सुरक्षा) का मैं स्वयं वहन करता हूँ।"

यह अध्याय सिखाता है कि जब व्यक्ति भगवान पर पूर्ण विश्वास करता है और अपने कर्मों को उनके चरणों में अर्पित करता है, तब भगवान स्वयं उसकी चिंता करते हैं।


विश्व रूप दर्शन योग (अध्याय 11)

इस अध्याय में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना "विश्व रूप" दिखाया। यह अध्याय गीता के सबसे प्रभावशाली अध्यायों में से एक है।

अर्जुन ने देखा कि श्रीकृष्ण के रूप में समस्त सृष्टि, काल और ब्रह्मांड समाहित हैं।

इस अनुभव ने अर्जुन को यह समझने में मदद की कि भगवान सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान हैं।

इस अध्याय का संदेश है कि भगवान का साक्षात्कार केवल भक्ति और आत्मसमर्पण के माध्यम से ही संभव है। जब व्यक्ति अपने अहंकार को त्याग देता है, तभी उसे भगवान की महिमा का अनुभव होता है।


भक्ति योग (अध्याय 12)

भक्ति योग गीता का बारहवां अध्याय है, जो यह सिखाता है कि भगवान तक पहुंचने का सबसे सरल और प्रभावी मार्ग भक्ति है।

भक्ति का अर्थ है भगवान के प्रति पूर्ण प्रेम और समर्पण।

इसमें किसी कर्म या ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती।

श्रीकृष्ण ने कहा,

"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।

मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण:।।"

अर्थात, "मेरा चिंतन करो, मेरी भक्ति करो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो। ऐसा करने से तुम मुझे प्राप्त करोगे।"

भक्ति योग यह सिखाता है कि सच्ची भक्ति में कोई स्वार्थ नहीं होता। यह केवल भगवान के प्रति प्रेम और विश्वास पर आधारित होती है।


गुण त्रय विभाग योग (अध्याय 14)

इस अध्याय में श्रीकृष्ण ने तीन गुणों – सत्त्व, रजस और तमस – का वर्णन किया है।

  • सत्त्व गुण: यह पवित्रता, ज्ञान और शांति का प्रतीक है।
  • रजस गुण: यह क्रियाशीलता, इच्छा और आसक्ति को दर्शाता है।
  • तमस गुण: यह अज्ञानता, आलस्य और निष्क्रियता का द्योतक है।

श्रीकृष्ण ने बताया कि मनुष्य का स्वभाव और कर्म इन तीन गुणों के मिश्रण से निर्मित होता है। लेकिन जो व्यक्ति इन तीन गुणों से ऊपर उठ जाता है, वही सच्ची मुक्ति प्राप्त करता है।


मोक्ष संन्यास योग (अध्याय 18)

अठारहवां अध्याय, "मोक्ष संन्यास योग," गीता का अंतिम और सबसे व्यापक अध्याय है। इसमें श्रीकृष्ण ने त्याग, संन्यास और मोक्ष का विस्तार से वर्णन किया है।

  • त्याग: इसका अर्थ है फल की आसक्ति को त्यागना।
  • संन्यास: इसका अर्थ है अपने जीवन को आध्यात्मिकता के लिए समर्पित करना।
  • मोक्ष: यह जीवन और मृत्यु के चक्र से मुक्ति है।

श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि जो व्यक्ति अपने कर्मों को भगवान को समर्पित करता है और अहंकार, आसक्ति और स्वार्थ से मुक्त होकर जीवन जीता है, वही मोक्ष प्राप्त करता है।

उन्होंने कहा,

"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:।।"

अर्थात, "सभी धर्मों का त्याग करके केवल मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूंगा, चिंता मत करो।"

यह अध्याय गीता का सार प्रस्तुत करता है और यह सिखाता है कि जीवन में आत्मसमर्पण, त्याग और समर्पण के बिना सच्ची शांति और मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती।


भगवद्गीता का अंतिम संदेश

श्रीमद्भागवत गीता का हर अध्याय हमें जीवन के किसी न किसी पहलू का ज्ञान प्रदान करता है।

यह मोह, अज्ञान और संशय को दूर करता है। यह हमें कर्म, ज्ञान और भक्ति के माध्यम से जीवन को जीने की सही विधि सिखाता है. यह हमें प्रेरणा देता है कि जीवन में चाहे कितनी भी कठिनाइयाँ क्यों न आएं, हमें अपने कर्तव्य का पालन करते रहना चाहिए।

गीता का अंतिम संदेश है:

  • "संशय को त्यागो, कर्तव्य पर डटे रहो।"
  • "अपने जीवन को भगवान को समर्पित करो।"
  • "निष्काम भाव से कर्म करो और अपने जीवन को अर्थपूर्ण बनाओ।"

निष्कर्ष

गीता हमें सिखाती है कि जीवन में चाहे कितने भी संकट क्यों न आएं, हमें धैर्य, समर्पण और विश्वास के साथ अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। यही गीता का वास्तविक सार है।

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