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शनिवार व्रत कथा | शनिदेव की व्रत कथा | Shaniwar Vrat Katha | Shanidev ki katha

🌺 शनिवार व्रत कथा 🌺 शनिदेव की व्रत कथा 🌺 

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सर्व-प्रथम देवी सरस्वती का सुमिरन करके, गणपति जी को नमस्कार करके मैं श्री शनिदेव जी की कथा प्रारम्भ करती हूं। शनिदेव जो मनवांछित कार्यों को सफल बनाने वाले हैं तथा जिन्हें सकल नर-नारी और तैंतीस कोटि देवता योगीश्वर मुनीश्वर पूजते हैं, वही देव मेरी ग़लतियों को क्षमा करें और मुझे अपनी शरण में लें।

मेरे मन में आपके प्रति अगाध प्रेम है। यह बात सर्व-विदित है कि जो लोग शनिदेव का ध्यान करते हैं उनके सकल मनोरथ सफल होते हैं तथा जो ऐसे देव को भूल जाता है वह इस संसार में महान दुख पाता है, नरक-गामी होता है और अगले जन्म में पशु की योनि में जन्म लेता है। जो कथा मैं तन-मन से कहने जा रही हूं उसे आप भी सच्चे मन से ग्रहण करें।

एक बार संसार में चहुँ ओर पूजे जाने वाले नव ग्रह स्वर्ग लोक में एकत्र हुए। परस्पर विविध प्रकार से वार्तालाप करने लगे। जब बात घूमती हुई उस स्थान पर आ पहुंची कि हम नव ग्रहों में सबसे बड़ा और सर्वाधिक पूजनीय कौन देव है तो प्रत्येक ग्रह देवता स्वयं को बड़ा कहने लगे।

इस बात पर जब बहुत देर तक वाद-विवाद होता रहा और कोई निर्णय नहीं हो सका तो यह तय हुआ कि चलकर इन्द्रदेव से इसका निर्णय कराना चाहिए। अंत में वे सभी नौ ग्रह इन्द्र देव के पास पहुंचे।

इंद्र इस असमंजस में पड़ गए कि वे इस समस्या का समाधान कैसे करें, क्योंकि वे जानते थे कि कोई भी निर्णय देने पर एक या अधिक ग्रह नाराज हो सकते हैं। इसलिए उन्होंने सुझाव दिया कि पृथ्वी पर राजा विक्रमादित्य ही इस मुद्दे का निपटारा कर सकते हैं, क्योंकि वे बहुत ही न्यायप्रिय और बुद्धिमान राजा माने जाते थे।

सभी ग्रह पृथ्वी पर राजा विक्रमादित्य के दरबार में पहुंचे और अपनी समस्या राजा के समक्ष रखी। राजा विक्रमादित्य उनकी बात सुनकर चिंतित हो गए। वे जानते थे कि यदि उन्होंने किसी ग्रह को छोटा बताया तो वह ग्रह क्रोधित हो जाएगा। इस समस्या का हल खोजने के लिए उन्होंने गहन विचार किया और अंत में एक उपाय सोचा।

उन्होंने सोना चांदी कांस्य पीतल सीसा टिन जस्ता अभ्रक और आयरन से नौ सिंहासन बनवाए और उन्हें एक निश्चित क्रम में रखवा दिया। राजा विक्रमादित्य ने सभी ग्रहों से निवेदन किया कि वे इस क्रम में सिंहासन पर बैठें और यह शर्त रखी कि जो सबसे अंत में सिंहासन पर बैठेगा, वही सबसे छोटा माना जाएगा।

सभी ग्रहों ने राजा की बात मानी और क्रम अनुसार सिंहासन पर बैठने लगे। शनिदेव सबसे अंत में सिंहासन पर बैठे, जिससे उन्हें सबसे छोटा माना गया। यह देखकर शनिदेव क्रोधित हो गए और उन्होंने सोचा कि राजा विक्रमादित्य ने जानबूझकर ऐसा किया है।

क्रोध के आवेश में शनिदेव ने कहा, "राजा तू मुझे नहीं जानता। मैं सूर्य चंद्रमा मंगल बुध बृहस्पति शुक्र राहु और केतु से भी अधिक शक्तिशाली हूं। सूर्य एक राशि में एक महीना रहता है, चंद्रमा सवा दो महीने और दो दिन, मंगल डेढ़ महीना, बृहस्पति तेरह महीने, बुध और शुक्र एक-एक महीना विचरण करते हैं, लेकिन मैं ढाई से साढ़े सात साल तक रहता हूं।

मैंने बड़े बड़े का विनाश किया है। श्रीराम की साढ़ेसाती आने पर उन्हें वन वन भटकना पड़ा और रावण की साढ़ेसाती आने पर उसकी लंका बंदरों की सेना द्वारा नष्ट हो गई।"

यह सुनकर राजा विक्रमादित्य सकते में आ गए। शनिदेव ने चेतावनी देते हुए कहा "राजा अब तुम्हें सावधान रहने की जरूरत है।" इतना कहकर शनिदेव क्रोध में वहां से चले गए।

समय बीतता गया और आखिरकार राजा विक्रमादित्य की साढ़ेसाती का समय आ गया। शनि देव ने घोड़ों के सौदागर का रूप धारण किया और राजा के राज्य में प्रवेश किया।

उनके पास उत्तम नस्ल के कई घोड़े थे। जब राजा को सौदागर और उसके घोड़ों के बारे में पता चला, तो उन्होंने अपने अश्व-पाल को अच्छे घोड़े खरीदने के लिए भेजा।

अश्व-पाल ने कई घोड़े खरीदे, और सौदागर ने उपहार स्वरूप एक सर्वोत्तम नस्ल का घोड़ा राजा की सवारी के लिए दिया। राजा विक्रमादित्य जब उस घोड़े पर बैठे, तो वह घोड़ा तेजी से जंगल की ओर भागने लगा। जंगल में पहुंचकर वह घोड़ा गायब हो गया, और राजा अकेले, भूखे-प्यासे जंगल में भटकने लगे।

तभी उन्हें एक ग्वाला दिखाई दिया, जिसने राजा की प्यास बुझाई। प्रसन्न होकर राजा ने उसे अपनी अंगूठी दे दी और नगर की ओर चल पड़े। नगर में पहुंचकर वे एक सेठ की दुकान पर गए और जल पिया। उन्होंने अपना नाम वीका बताया। उसी दिन सेठ की दुकान पर खूब आमदनी हुई। सेठ ने खुश होकर उन्हें अपने घर पर ठहराया।

सेठ के घर में एक खूंटी पर हार टंगा हुआ था, जिसे खूंटी निगल रही थी। कुछ ही देर में हार पूरी तरह से गायब हो गया। सेठ जब वापस आया, तो हार गायब देखकर उसने सोचा कि वीका ने ही उसे चुराया है। सेठ ने वीका को कोतवाल से पकड़वा दिया।

राजा, जिन्हें अब वीका कहा जा रहा था, को चोर समझकर दंड स्वरूप उनके हाथ-पैर कटवा दिए गए। अपंग अवस्था में उन्हें नगर के बाहर फेंक दिया गया। उसी समय वहां से एक तेली गुजर रहा था, जिसे वीका पर दया आ गई। उसने वीका को अपनी गाड़ी में बैठा लिया, और वीका अपनी जीभ से बैलों को हांकने लगे।

कुछ समय बाद राजा की शनि दशा समाप्त हो गई। वर्षा काल आने पर वीका ने मल्हार गाना शुरू कर दिया। नगर की राजकुमारी मनभावनी ने यह मधुर गीत सुना और मन ही मन यह प्रण कर लिया कि जो भी इस राग को गा रहा है, वह उसी से विवाह करेगी।

उसने अपनी दासियों को उस गायक को ढूंढने के लिए भेजा, लेकिन जब दासियों ने लौटकर बताया कि वह गायक एक अपंग व्यक्ति है, तब भी राजकुमारी नहीं मानी और अगले दिन से अनशन पर बैठ गईं। जब लाख समझाने पर भी राजकुमारी ने अपना निर्णय नहीं बदला, तब राजा ने उस तेली को बुलवाया और वीका से राजकुमारी के विवाह की तैयारी करने के लिए कहा।

वीका और राजकुमारी मन-भावनी का विवाह संपन्न हो गया। एक रात, वीका के स्वप्न में शनि देव प्रकट हुए और बोले, "देखा राजन, तुमने मुझे सबसे छोटा बताकर कितना दुःख झेला है।" राजा विक्रमादित्य ने विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर क्षमा मांगी और कहा, "हे शनि देव! जैसा कष्ट आपने मुझे दिया है, वैसा किसी और को न दें।"

शनि देव ने उनकी विनती स्वीकार कर ली और कहा, "मेरे व्रत और कथा से तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएंगे। जो भी नित्य मेरा ध्यान करेगा और चींटियों को आटा डालेगा, उसकी सारी मनोकामना पूर्ण होगी।" शनि देव ने राजा विक्रमादित्य को उनके हाथ-पैर भी वापस दे दिए।

अगले दिन सुबह, जब राजकुमारी मनभावनी की आंख खुली, तो उन्होंने यह देखकर आश्चर्यचकित हो गई कि वीका के हाथ-पैर वापस आ गए हैं।

वीका ने उन्हें बताया कि वह वास्तव में उज्जैन के राजा विक्रमादित्य हैं। यह सुनकर मन-भावनी खुशी से भर गई। राजा के साथ-साथ नगरवासी भी अत्यंत प्रसन्न हुए। जब सेठ ने यह सुना, तो वह राजा के पैरों पर गिरकर क्षमा मांगने लगा।

राजा विक्रमादित्य ने कहा, "यह सब शनि देव के कोप का प्रभाव था और इसमें किसी का कोई दोष नहीं है।" सेठ ने निवेदन किया, "मुझे शांति तभी मिलेगी, जब आप मेरे घर आकर भोजन करेंगे।" सेठ ने अनेक प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजनों से राजा का सत्कार किया।
जब राजा भोजन कर रहे थे, तब वही खूंटी जिसने हार निगल लिया था, अब उसे उगलने लगी।

सेठ ने राजा को अनेक मोहरें देकर धन्यवाद दिया और अपनी कन्या श्रीकंवरी के साथ पाणिग्रहण करने का निवेदन किया। राजा ने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। इसके बाद, राजा विक्रमादित्य अपनी दोनों रानियों मनभावनी और श्रीकंवरी के साथ उज्जैन नगरी लौट आए।

पूरे नगर में दीपमाला सजाई गई और आनंदोत्सव मनाया गया। राजा ने घोषणा करते हुए कहा, "मैंने शनि देव को सबसे छोटा बताया था, लेकिन वास्तव में वही सर्वोपरि हैं।"

तब से पूरे राज्य में शनि देव की पूजा और कथा नियमित रूप से होने लगी। प्रजा के बीच खुशी और आनंद का वातावरण बन गया।
शनि देव के व्रत की कथा को जो भी सुनता या पढ़ता है, उसके सारे दुख दूर हो जाते हैं।

🌺शनिदेव की दूसरी व्रत कथा🌺


एक समय की बात है, जब ब्रह्मांड के हर कोने में देवी-देवताओं की कहानियों और उनके चमत्कारों की गूंज होती थी।
उसी समय भगवान सूर्य के पुत्र शनि देव का जन्म हुआ।

शनिदेव का बाल्य काल अत्यंत सुंदरता और तेजस्विता से भरा था। उनके इस दिव्य रूप को देखकर देवताओं और ऋषियों में उनके प्रति विशेष आदर था।

शनिदेव के जन्म से ही उनकी आँखों में एक अनोखी चमक थी जो हर किसी को मंत्र मुग्ध कर देती थी। शनिदेव की सुंदरता और तेजस्विता देखकर गंधर्व राज ने अपनी पुत्री कंकाली का विवाह शनि देव के साथ कर दिया।

कंकाली भी अत्यंत सुंदर और गुणवान थी। दोनों का विवाह बहुत धूम-धाम से संपन्न हुआ। कंकाली शनिदेव से बहुत प्रेम करती थी और उनकी सेवा में सदा तत्पर रहती थी।

शनि देव की अद्वितीय सुंदरता और तेजस्विता के कारण इंद्र की सभा की अप्सराएं भी उनकी ओर आकर्षित हो गईं। वे अक्सर शनि देव को देखने और उनकी सुंदरता का आनंद लेने के लिए आती थीं। शनिदेव भी कई बार उन अप्सराओं पर मोहित हो जाते थे। यह बात कंकाली को बिल्कुल अच्छी नहीं लगती थी।

वह अपने पति के इस व्यवहार से अत्यंत दुखी हो गई और उसने शनिदेव को इस प्रकार की दृष्टि से बचाने का निर्णय लिया।
अपने पति के इस व्यवहार से कुपित होकर कंकाली ने शनिदेव को श्राप दे दिया। उसने कहा, "हे शनिदेव आपकी दृष्टि सदा नीचे की ओर रहेगी। यदि आप किसी को सीधे देखोगे, तो उस पर साढ़ेसाती का प्रभाव पड़ जाएगा।"

यह सुनकर शनिदेव अत्यंत दुखी हो गए। उन्होंने अपने कृत्य पर पश्चाताप किया और अपनी पत्नी कंकाली से क्षमा मांगने का प्रयास किया, लेकिन कंकाली अपने निर्णय पर अडिग रही। अपने श्राप से मुक्ति पाने के लिए शनिदेव ने भगवान शिव की घोर तपस्या करने का निर्णय लिया।

उन्होंने कठोर तपस्या की, कई वर्षों तक बिना अन्न और जल के भगवान शिव का ध्यान किया। उनकी तपस्या की तीव्रता और उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने प्रकट होकर शनिदेव से वरदान मांगने के लिए कहा।

भगवान शिव के समक्ष शनिदेव ने निवेदन किया, "हे महादेव कृपा करके मुझे ऐसा वरदान दें जिससे मेरी दृष्टि सृष्टि पर सीधे देखने के लिए शुभ हो जाए।"

भगवान शिव ने शनिदेव की प्रार्थना स्वीकार की और बोले, "हे सूर्यपुत्र शनिदेव तुम्हारी दृष्टि अब से सीधे देखने पर भी किसी को कष्ट नहीं देगी। जो भी व्यक्ति शनिवार के दिन पीपल के पेड़ के नीचे तुम्हारी पूजा करेगा और तेल चढ़ाएगा, उस पर तुम्हारी दृष्टि शुभ हो जाएगी।"

भगवान शिव के वरदान से शनिदेव की दृष्टि का प्रभाव बदल गया। अब शनिदेव की दृष्टि सीधे देखने पर भी शुभ हो गई, लेकिन इसके लिए शनिवार के दिन पीपल के पेड़ के नीचे उनकी पूजा और तेल चढ़ाना आवश्यक हो गया।

इस प्रकार शनिदेव की पूजा का महत्व स्थापित हुआ और शनिवार के दिन लोग पीपल के पेड़ के नीचे जाकर शनिदेव की पूजा करने लगे। शनिदेव की पूजा के साथ-साथ नित्य ध्यान और उनकी कथा का पाठ भी अत्यंत लाभकारी होता है।

जो व्यक्ति नियमित रूप से शनिदेव का ध्यान करता है और शनिवार के दिन चींटियों को आटा डालता है, उसकी सभी मनो कामनाएं पूर्ण होती हैं। शनिदेव के प्रति भक्ति और उनकी पूजा से जीवन में आने वाले सभी प्रकार के कष्टों से मुक्ति मिलती है।

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🌺कथा समाप्त!🌺
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