🌸 मंगलवार व्रत कथा🌹 Mangalwar Vrat Katha 🌸
🌺जय श्री कृष्णा!, राधे राधे!🌺
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मंगलवार को हनुमान जी की सच्चे मन से पूजा करने, उपवास करने और व्रत कथा सुनने से कुंडली में मौजूद सभी ग्रह शांत हो जाते हैं और हनुमान जी की विशेष कृपा प्राप्त होती है जिससे सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। सुख सम्पत्ति, यश और संतान की प्राप्ति होती है। हनुमान जी का व्रत रखने वाले को हर मंगलवार इस कथा को सुनना चाहिए।
🌹मंगलवार की व्रत कथा🌹
प्राचीन काल में भारत के एक छोटे से गाँव सूर्यपुर में एक विद्वान ब्राह्मण और उसकी पत्नी निवास करते थे। यह गाँव चारों ओर से हरियाली से भरा हुआ था और पास ही में एक घना वन फैला था, जहाँ कई संत महात्मा तपस्या किया करते थे। सूर्यपुर गाँव में लोग बड़े श्रद्धालु थे और हनुमान जी की पूजा का विशेष महत्व था। गाँव के बीचों बीच स्थित हनुमान मंदिर में लोग मंगलवार को विशेष रूप से पूजा और व्रत किया करते थे।
ब्राह्मण का नाम विराज और उसकी पत्नी का नाम सुमति था। विराज बहुत ही ज्ञानी और धर्मपरायण व्यक्ति थे, जबकि सुमति एक आदर्श पतिव्रता स्त्री थी। दोनों का गृहस्थ जीवन बहुत ही शांतिपूर्ण था, लेकिन उनकी सबसे बड़ी चिंता यह थी कि उनके कोई संतान नहीं थी। कई वर्षों तक पूजा पाठ करने और तीर्थ यात्रा करने के बावजूद भी उन्हें संतान सुख प्राप्त नहीं हुआ था। इसके कारण दोनों पति पत्नी अत्यंत दुखी और निराश रहते थे।
एक दिन ब्राह्मण विराज ने अपनी पत्नी सुमति से कहा, "अब मैं वन में जाकर हनुमान जी की कठोर तपस्या करूंगा। शायद उनकी कृपा से हमें संतान की प्राप्ति हो सके।" सुमति ने भी अपने पति का समर्थन करते हुए कहा, "जीवन में जो भी संकट आए, मैं आपके बिना यहाँ आपकी राह देखती रहूंगी और मंगलवार का व्रत रखूंगी। हनुमान जी अवश्य हमारी पुकार सुनेंगे।"
विराज हनुमान जी की पूजा हेतु वन में चले गए। वहाँ वह एक गुफा में रहते थे और नित्य हनुमान चालीसा का पाठ मंत्र जाप और पूजा पाठ किया करते थे। इधर सुमति ने मंगलवार व्रत का संकल्प लिया। वह प्रत्येक मंगलवार को सुबह स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करती, हनुमान जी की मूर्ति के सामने दीप जलाती और गुड़ चना का भोग लगाकर व्रत समाप्त करती।
सुमति के मन में एक ही इच्छा थी — हनुमान जी के आशीर्वाद से उन्हें एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हो।
कुछ महीने बीत गए। सुमति ने बड़े नियम और निष्ठा से हर मंगलवार व्रत किया। लेकिन एक दिन ऐसा संयोग हुआ कि मंगलवार का दिन आया और सुमति का शरीर बहुत ही दुर्बल और अस्वस्थ हो गया। इसके कारण वह भोजन बनाने में असमर्थ हो गई। उसने मन में सोचा, "आज मैं हनुमान जी को भोग नहीं लगा सकूंगी, लेकिन मैं अन्न ग्रहण भी नहीं करूंगी। अगले मंगलवार को नियम पूर्वक भोग लगाकर ही कुछ खाऊंगी।"
सुमति ने 6 दिन तक कुछ भी खाए बिना व्रत किया। छठे दिन उसका शरीर इतना कमजोर हो गया कि वह बिस्तर से उठ भी नहीं सकी। मंगलवार के दिन वह मूर्छित होकर गिर पड़ी।
सुमति की लगन और निष्ठा देखकर हनुमान जी अति प्रसन्न हुए। उनके मन में आया कि इतनी कठिन तपस्या करने वाली भक्त को मैं आज दर्शन देकर उसे आशीर्वाद दूं। तभी हनुमान जी बालक के रूप में प्रकट हुए। उनके चेहरे पर एक दिव्य तेज था और उनकी मुस्कान अत्यंत मधुर थी। सुमति ने जब अपनी आँखें खोलीं, तो उसने बालक को अपने सामने खड़ा पाया। बालक ने कहा, "माता, मैं हनुमान जी का आशीर्वाद हूँ। आपके व्रत और तपस्या के फलस्वरूप मैं आपके जीवन में आया हूँ।"
हनुमान जी के इन शब्दों को सुनते ही सुमति के नेत्रों में आँसू भर आए। वह हर्ष से रो पड़ी और बालक को अपनी गोद में उठा लिया। उसने बालक का नाम मंगल रखा, क्योंकि वह मंगलवार के दिन ही प्राप्त हुआ था। सुमति की खुशियों का ठिकाना न था।
कुछ समय बाद, ब्राह्मण विराज वन से वापस लौट आए। उन्होंने अपने घर में एक सुंदर और तेजस्वी बालक को खेलते हुए देखा। वह चकित होकर अपनी पत्नी सुमति से बोले, "यह बालक कौन है?"
सुमति ने मुस्कुराते हुए कहा, "हनुमान जी ने हमारी तपस्या से प्रसन्न होकर यह बालक हमें दिया है। मैंने मंगलवार का व्रत रखा और हनुमान जी ने प्रत्यक्ष दर्शन देकर मुझे यह वरदान दिया है।"
लेकिन ब्राह्मण विराज को यह बात जरा भी विश्वास नहीं हुआ। उनके मन में संदेह उत्पन्न हुआ। उन्होंने सोचा, "यह स्त्री अवश्य मुझसे छल कर रही है। यह बालक किसी अन्य का है और यह अपनी लज्जा छुपाने के लिए हनुमान जी का नाम ले रही है।"
एक दिन ब्राह्मण विराज पानी भरने के लिए गाँव के बाहर स्थित कुएँ पर जाने लगे। सुमति ने उनसे कहा, "मंगल को भी अपने साथ ले जाओ।" ब्राह्मण ने क्रोध में मंगल का हाथ पकड़ा और उसे कुएँ तक ले गए। लेकिन उनके मन में बुरा विचार आया। उन्होंने बालक मंगल को कुएँ में धक्का दे दिया और पानी भरकर घर लौट आए।
घर पहुँचने पर सुमति ने पूछा, "मंगल कहाँ है?" विराज ने उत्तर दिया, "वह मेरे पीछे पीछे आ रहा था।" तभी बालक मंगल मुस्कुराते हुए दरवाजे से अंदर आ गया। उसके कपड़े बिल्कुल सूखे थे और उसके चेहरे पर किसी प्रकार का भय नहीं था। उसे देखकर ब्राह्मण विराज आश्चर्यचकित रह गए। उन्होंने सोचा, "यह बालक कुएँ में गिरने के बावजूद भी जीवित कैसे बचा?"
रात में विराज को स्वप्न में हनुमान जी ने दर्शन दिए। उन्होंने कहा, "यह बालक मैंने तुम्हें दिया है। तुम्हारी पत्नी ने पूर्ण निष्ठा और तप से मंगलवार का व्रत किया था, जिसके कारण मैं प्रसन्न होकर तुम्हें यह संतान प्रदान की है। तुम व्यर्थ में अपनी पत्नी को दोष दे रहे हो।"
हनुमान जी के इन शब्दों को सुनकर विराज का हृदय ग्लानि से भर गया। सुबह होते ही उन्होंने सुमति और मंगल के चरणों में सिर झुकाकर क्षमा मांगी। सुमति ने अपने पति को क्षमा कर दिया और पूरा परिवार मंगल के आशीर्वाद से सुख पूर्वक रहने लगा।
मंगल अब धीरे धीरे बड़ा होने लगा। वह देखने में अत्यंत सुंदर और तेजस्वी था। उसकी आँखों में अद्भुत चमक और मुस्कान में मोहकता थी। पूरे गाँव में मंगल की चर्चा होने लगी। लोग कहते, "यह बालक साधारण नहीं है। इसमें अवश्य हनुमान जी की कृपा है।" गाँव के लोग मंगल को बड़े आदर और प्रेम से देखते थे।
मंगल के कारण ब्राह्मण विराज और सुमति का घर सुख शांति और समृद्धि से भर गया। जहाँ पहले संतान हीनता के कारण उनका जीवन नीरस था, वहीं अब मंगल की किलकारियों से उनका घर आँगन गूंज उठता।
लेकिन मंगल केवल एक साधारण बालक नहीं था। उसमें अद्भुत शक्ति थी। एक दिन गाँव के समीप स्थित वन में कुछ चरवाहे अपनी गायें चरा रहे थे। तभी एक भयंकर शेर वहाँ आ गया। गायों के झुंड को देखकर शेर दहाड़ मारते हुए उनकी ओर बढ़ने लगा। चरवाहे डरकर इधर उधर भाग गए। लेकिन तभी मंगल वहाँ पहुँचा।
मंगल ने शेर की ओर देखा और बड़ी शांति से बोला, "तू इन बेजुबान जीवों पर हमला क्यों करता है? यहाँ से लौट जा।"
सिंह मंगल के तेज और वाणी से ऐसा प्रभावित हुआ कि वह तुरंत पीछे मुड़कर जंगल में चला गया। यह चमत्कार देखकर चरवाहे और गाँव के लोग दंग रह गए। लोग दौड़कर ब्राह्मण के घर गए और सुमति तथा विराज से सारी घटना सुनाई।
अब पूरा गाँव मानने लगा कि मंगल कोई साधारण बालक नहीं, बल्कि हनुमान जी का आशीर्वाद है। मंगल की महिमा की चर्चा आसपास के गाँवों में भी होने लगी।
कुछ समय बाद गाँव में एक नई विपत्ति आ पड़ी। पास के राज्य के राजा वीरधन के सेनापति ने गाँव के लोगों से कर बढ़ाने की माँग की। राजा वीरधन के सेनापति ने कहा, "यदि तुम लोग कर नहीं दोगे, तो गाँव को नष्ट कर दिया जाएगा।"
गाँव के लोग बहुत ही गरीब थे और उनके पास इतना धन नहीं था कि वे कर चुका सकें। सभी लोग भयभीत हो गए और पंचायत में एकत्र होकर इसका उपाय सोचने लगे। गाँव के बुजुर्गों ने कहा, "अब हमें हनुमान जी की शरण में जाना चाहिए। वही हमें इस विपत्ति से बचा सकते हैं।"
मंगल ने यह सब सुना और बोला, "आप सब चिंता न करें। हनुमान जी की कृपा से यह संकट भी टल जाएगा।"
सेनापति अगले दिन गाँव में आ धमका। उसके साथ बड़ी संख्या में सैनिक और हथियार थे। गाँव के लोग इधर उधर भागने लगे। तभी मंगल वहाँ पहुँचा और सेनापति के सामने खड़ा हो गया। उसने कहा, "तुम लोग हमारे गाँव पर अन्याय कर रहे हो। यहाँ के लोग गरीब हैं और तुम्हारे कर का भार नहीं उठा सकते।"
सेनापति क्रोधित होकर बोला, "छोटे बालक तू कौन है जो मेरे काम में बाधा डाल रहा है? हट जा मेरे रास्ते से।"
मंगल ने शांत स्वर में कहा, "तू इस गाँव को छोड़कर वापस लौट जा, नहीं तो तेरा अहंकार चूर चूर हो जाएगा।"
सेनापति यह सुनकर और क्रोधित हो गया। उसने अपने सैनिकों को मंगल पर हमला करने का आदेश दिया। लेकिन तभी मंगल ने जोर से "जय हनुमान" का उच्चारण किया। उसके साथ ही एक तेजस्वी प्रकाश चारों ओर फैल गया।
मंगल के शरीर से एक दिव्य शक्ति प्रकट हुई और सभी सैनिक अचेत होकर गिर पड़े। सेनापति भयभीत होकर वहीं गिर गया और काँपते हुए बोला, "मुझे क्षमा करो, हे देव! मुझे क्षमा करो!"
इस घटना की खबर राजा वीरधन तक पहुँची। राजा ने मंगल के चमत्कार की बात सुनी और वह स्वयं गाँव में आया। वहाँ उसने मंगल के दर्शन किए और उसकी दिव्य महिमा को देखकर उसके चरणों में गिर पड़ा। राजा ने कहा, "हे बालक, तुम कौन हो? तुम अवश्य ही कोई देवता हो। कृपया मुझे क्षमा करो और मेरे राज्य को आशीर्वाद दो।"
मंगल ने राजा से कहा, "राजन, मैं केवल हनुमान जी का भक्त हूँ। यदि तुम सच्चे मन से हनुमान जी की आराधना करोगे और अन्याय करना छोड़ दोगे, तो तुम्हारा राज्य समृद्ध और सुरक्षित रहेगा।"
राजा वीरधन ने उसी समय से अन्यायपूर्ण कर वसूलना बंद कर दिया और अपने राज्य में हनुमान जी की मूर्ति की स्थापना करवाई। मंगल की कृपा से गाँव और राज्य में शांति और सुख समृद्धि लौट आई।
कुछ वर्षों बाद मंगल बड़ा हो गया। वह हमेशा लोगों की सेवा में तत्पर रहता और जरूरतमंदों की मदद करता। एक दिन मंगल ने अपने माता पिता से कहा, "मेरा समय अब पूरा हुआ। मुझे हनुमान जी के पास लौटना है।"
सुमति और विराज यह सुनकर दुःखी हो गए। सुमति रोते हुए बोली, "बेटा, तू हमें छोड़कर क्यों जा रहा है? हमने तुझे हनुमान जी के आशीर्वाद से पाया था।"
मंगल ने समझाते हुए कहा, "माँ, मैं हनुमान जी की कृपा से इस संसार में आया था। अब मेरा कर्तव्य पूरा हुआ। मैं सदा तुम दोनों और इस गाँव पर अपनी कृपा बनाए रखूंगा। जो भी सच्चे मन से मंगलवार का व्रत करेगा और हनुमान जी की पूजा करेगा, उसके सारे कष्ट दूर होंगे और उसे सुख समृद्धि की प्राप्ति होगी।"
इतना कहकर मंगल एक तेजस्वी प्रकाश में परिवर्तित हो गया और अंतर्धान हो गया।
मंगल के जाने के बाद भी उसकी महिमा गाँव में बनी रही। लोग मंगल के चमत्कारों को याद करते और हनुमान जी की पूजा करते। ब्राह्मण विराज और सुमति ने मंगल की स्मृति में गाँव के हनुमान मंदिर का जीर्णोद्धार कराया और वहाँ हर मंगलवार को विशेष पूजा और भंडारे का आयोजन होने लगा।
यह कथा पूरे क्षेत्र में प्रसिद्ध हो गई और लोग सच्चे मन से मंगलवार का व्रत रखने लगे। जो भी व्यक्ति नियम पूर्वक मंगलवार का व्रत करता और हनुमान जी की कथा सुनता, उसकी सभी मनोकामनाएँ पूरी होतीं और जीवन में सुख शांति बनी रहती।
🌺 मंगलवार व्रत की पौराणिक कथा 🌺
🌺 राजा चंद्रसेन और रानी पद्मावती की कथा 🌺
बहुत समय पहले की बात है, प्राचीन भारत में एक विशाल और समृद्ध राज्य था जिसका नाम मधुपुरी था। मधुपुरी राज्य में राजा चंद्रसेन का शासन था। राजा चंद्रसेन एक न्यायप्रिय, धर्मपरायण और वीर राजा थे। उनका नाम दूर दूर तक उनकी सत्य निष्ठा और परोपकारी स्वभाव के लिए प्रसिद्ध था। उनकी रानी का नाम पद्मावती था। रानी पद्मावती अत्यंत सुंदर, बुद्धिमान और धर्म में अटूट श्रद्धा रखने वाली स्त्री थीं। वह हमेशा देवी देवताओं की पूजा अर्चना में लीन रहतीं और विशेषकर मंगलवार के दिन हनुमान जी का व्रत करतीं।
राजा चंद्रसेन को ईश्वर पर विश्वास था, किंतु वह देवताओं की पूजा में उतने आस्थावान नहीं थे जितनी उनकी रानी। उन्हें अपने पराक्रम और बुद्धिमत्ता पर अधिक भरोसा था। राजा चंद्रसेन का मानना था कि केवल पुरुषार्थ से ही सब कुछ संभव है, देवताओं की कृपा का इसमें अधिक योगदान नहीं होता।
एक दिन की बात है, मधुपुरी के राजमहल में एक संन्यासी का आगमन हुआ। वह संन्यासी लंबी तपस्या के कारण तेजस्वी प्रतीत हो रहे थे। उनकी आँखों में अद्भुत तेज और चेहरे पर शांति थी।
उन्होंने राजा से कहा, "हे राजन, आपको प्रजा का पालन करते हुए धर्म और भक्ति का मार्ग कभी नहीं छोड़ना चाहिए। यदि आप मंगलवार का व्रत करेंगे और हनुमान जी की सच्चे मन से पूजा करेंगे, तो आपके राज्य की सुख-समृद्धि कई गुना बढ़ जाएगी।"
यह सुनकर राजा चंद्रसेन हंस पड़े और बोले, "महात्मन, मैं अपनी मेहनत और बुद्धि के बल पर अपने राज्य को चला रहा हूँ। मुझे किसी व्रत या देवताओं की कृपा की आवश्यकता नहीं।"
संन्यासी राजा की बातों को सुनकर मुस्कुराए और बोले, "हे राजन, प्रत्येक व्यक्ति को अपने पुरुषार्थ के साथ-साथ ईश्वर पर भी विश्वास रखना चाहिए। ईश्वर की कृपा बिना जीवन अधूरा है। यदि आप इसे समझने की कोशिश नहीं करेंगे, तो भविष्य में आपको कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है।"
इतना कहकर संन्यासी वहाँ से चले गए। रानी पद्मावती ने संन्यासी की बातों पर गहराई से विचार किया और मन में ठान लिया कि वह मंगलवार का व्रत विधिपूर्वक करेंगी और अपने पति को भी इसमें शामिल करेंगी।
कुछ दिनों के बाद, मधुपुरी राज्य पर एक भयंकर संकट आया। पड़ोसी राज्य के राजा ने मधुपुरी पर आक्रमण कर दिया। राजा चंद्रसेन ने अपने सैनिकों को युद्ध के लिए तैयार किया और स्वयं भी युद्ध के मैदान में उतर गए। युद्ध भयंकर हुआ और राजा चंद्रसेन ने पूरे पराक्रम के साथ युद्ध लड़ा। लेकिन दुर्भाग्यवश, मधुपुरी की सेना पराजित हो गई और राजा चंद्रसेन को कैद कर लिया गया।
राजमहल में इस समाचार से कोहराम मच गया। रानी पद्मावती दुखी और चिंतित थीं। उन्होंने अपने कक्ष में बैठकर भगवान हनुमान जी की पूजा प्रारंभ कर दी।
मंगलवार का दिन था, इसलिए उन्होंने व्रत रखते हुए पूरे श्रद्धा भाव से हनुमान चालीसा का पाठ किया और हनुमान जी से अपने पति को संकट से मुक्त कराने की प्रार्थना की।
रानी की प्रार्थना सुनकर हनुमान जी प्रसन्न हुए और उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए। हनुमान जी ने कहा, "हे देवी, तुम्हारी श्रद्धा और भक्ति से मैं प्रसन्न हूँ। तुम्हारे पति को शीघ्र ही इस संकट से मुक्ति मिलेगी। बस तुम मंगलवार का व्रत करते रहो और मुझ पर विश्वास रखो।"
स्वप्न से जागने के बाद रानी के मन में विश्वास और बढ़ गया। उन्होंने मंगलवार का व्रत सख्ती से पालन करना जारी रखा।
उधर, राजा चंद्रसेन पड़ोसी राज्य के कारागार में बंद थे। उन्हें अपनी पराजय का गहरा दुःख था। उनके मन में विचार आया कि शायद संन्यासी की बातों में कुछ सच्चाई थी। उन्होंने पहली बार मन ही मन भगवान हनुमान जी का स्मरण किया और उनसे सहायता की प्रार्थना की।
जैसे ही राजा ने सच्चे मन से हनुमान जी को याद किया, कारागार के द्वार अपने आप खुल गए। पहरेदार गहरी नींद में सो गए और राजा चंद्रसेन बिना किसी रुकावट के कारागार से बाहर निकल आए।
राजा चंद्रसेन ने अपने राज्य की ओर प्रस्थान किया। रास्ते में एक वटवृक्ष के नीचे उन्हें वही संन्यासी मिले, जिन्होंने कुछ दिनों पहले उन्हें उपदेश दिया था।
संन्यासी ने मुस्कुराते हुए कहा, "हे राजन, भगवान की कृपा से आप संकट से मुक्त हो गए। यह सब हनुमान जी की कृपा से संभव हुआ है। अब आप समझ गए होंगे कि ईश्वर पर विश्वास रखना कितना आवश्यक है।"
राजा चंद्रसेन को अपनी गलती का अहसास हुआ। उन्होंने संन्यासी के चरणों में गिरकर क्षमा मांगी और कहा, "महात्मन, आपने मेरी आँखें खोल दीं। मैं वचन देता हूँ कि अब से मैं सच्चे मन से भगवान हनुमान जी की पूजा करूँगा और मंगलवार का व्रत भी रखूँगा।"
संन्यासी राजा चंद्रसेन को आशीर्वाद देकर वहाँ से अदृश्य हो गए।
जब राजा चंद्रसेन सुरक्षित अपने राज्य वापस पहुँचे, तो पूरे मधुपुरी में उत्सव मनाया गया। प्रजा ने राजा के वापस आने पर खुशी के गीत गाए और नगर को सजाया गया।
राजा चंद्रसेन ने रानी पद्मावती से पूछा, "हे प्रिय, तुमने किस शक्ति से मुझे संकट से मुक्त कराया?"
रानी ने मुस्कुराते हुए कहा, "राजन, यह सब हनुमान जी की कृपा और मंगलवार के व्रत का फल है। मैंने सच्चे मन से हनुमान जी की आराधना की और उन्होंने मेरी प्रार्थना स्वीकार की।"
राजा चंद्रसेन ने इस पर कहा, "हे प्रिय, अब से मैं भी तुम्हारे साथ मंगलवार का व्रत रखूँगा और हनुमान जी की पूजा करूंगा।"
उस दिन से राजा और रानी दोनों ने पूरे श्रद्धा भाव से मंगलवार का व्रत रखना शुरू कर दिया। धीरे धीरे मधुपुरी राज्य की स्थिति और अधिक समृद्ध और शांतिपूर्ण हो गई। प्रजा सुखी हो गई और चारों ओर धर्म और भक्ति का वातावरण बन गया।
समय बीतता गया और मधुपुरी राज्य दिन ब दिन अधिक समृद्ध होने लगा। लेकिन भाग्य ने राजा चंद्रसेन की परीक्षा एक बार फिर लेने की ठानी।
मधुपुरी से सटे हुए एक वन में एक भयानक राक्षस कालकेतु का निवास था। कालकेतु बहुत ही क्रूर और शक्तिशाली था। वह देवताओं का विरोधी और निर्दोष लोगों को कष्ट देने वाला असुर था।
कालकेतु ने यह सुन रखा था कि मधुपुरी राज्य में हनुमान जी की पूजा से लोग सुखी और समृद्ध हो रहे हैं। यह बात उसे सहन नहीं हुई। उसने अपनी मायावी शक्तियों से मधुपुरी राज्य में हाहाकार मचा दिया।
राक्षस ने फसलें नष्ट कर दीं, पानी के स्रोत सुखा दिए और लोगों में भय फैलाना शुरू कर दिया। राजा चंद्रसेन को जब इस विपत्ति का पता चला, तो उन्होंने अपनी सेना लेकर राक्षस का सामना करने का निश्चय किया।
युद्ध की तैयारी के समय राजा चंद्रसेन ने रानी पद्मावती से कहा, "हे प्रिय, इस संकट की घड़ी में मैं अपनी सेना के साथ कालकेतु का सामना करूँगा। किन्तु मुझे विश्वास है कि हनुमान जी की कृपा से हम अवश्य विजय प्राप्त करेंगे।"
रानी ने उत्तर दिया, "राजन, आप निश्चिंत होकर युद्ध में जाएं। मैं मंगलवार का व्रत रखकर हनुमान जी से आपके विजय की प्रार्थना करूंगी।"
राजा चंद्रसेन ने युद्ध के मैदान की ओर प्रस्थान किया। दूसरी ओर, रानी पद्मावती ने राजमहल के मंदिर में हनुमान जी की मूर्ति के सामने घी का दीपक जलाया और व्रत रखते हुए पूरे दिन प्रार्थना की।
युद्ध का मैदान भयंकर युद्ध का साक्षी बना। राजा चंद्रसेन की सेना ने कालकेतु के सैनिकों का डटकर सामना किया, लेकिन कालकेतु स्वयं बहुत शक्तिशाली था। उसकी माया से राजा की सेना धीरे-धीरे कमजोर होने लगी। राजा चंद्रसेन ने स्वयं कालकेतु के साथ युद्ध करना प्रारंभ किया।
युद्ध के दौरान कालकेतु ने अपनी मायावी शक्तियों से आकाश में अंधकार कर दिया और राजा को घेर लिया। राजा चंद्रसेन संकट में पड़ गए। तभी उन्होंने मन ही मन हनुमान जी को पुकारा और कहा, "हे पवनपुत्र हनुमान, यदि आपकी कृपा मुझ पर है तो कृपया इस संकट से मेरी रक्षा करें।"
जैसे ही राजा ने हनुमान जी का स्मरण किया, आकाश में अद्भुत प्रकाश फैल गया। हनुमान जी प्रकट हुए और अपनी गदा से कालकेतु पर प्रहार किया। हनुमान जी के तेज से कालकेतु की माया समाप्त हो गई और वह मूर्छित होकर धरती पर गिर पड़ा। राजा चंद्रसेन ने हनुमान जी की कृपा से कालकेतु को पराजित कर दिया।
कालकेतु ने होश में आते ही हनुमान जी के चरणों में गिरकर क्षमा मांगी और कहा, "हे प्रभु, मैं अपनी भूल मानता हूँ। आपकी भक्ति के सामने मेरी सारी माया और शक्ति तुच्छ है। कृपया मुझे क्षमा करें और सही मार्ग पर चलने का आशीर्वाद दें।"
हनुमान जी ने उसे क्षमा कर दिया और उसे भक्ति का मार्ग अपनाने की शिक्षा दी। कालकेतु ने वचन दिया कि वह अब से किसी को कष्ट नहीं देगा और वन में तपस्या करेगा।
युद्ध के पश्चात राजा चंद्रसेन विजयी होकर मधुपुरी लौटे। पूरा राज्य राजा की विजय पर आनंदित था। राजा ने विजय का सारा श्रेय भगवान हनुमान जी को दिया और मंदिर में एक विशाल भंडारे का आयोजन करवाया।
राजा और रानी दोनों ने मंगलवार का व्रत और भी अधिक श्रद्धा के साथ करना प्रारंभ किया। रानी पद्मावती ने पूरे राज्य में महिलाओं को मंगलवार के व्रत का महत्व समझाया। उन्होंने कहा, "मंगलवार का व्रत केवल सुख-समृद्धि ही नहीं, बल्कि कठिनाइयों को दूर करने का भी एक सशक्त माध्यम है। इस व्रत से भगवान हनुमान जी की कृपा प्राप्त होती है और जीवन के सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं।"
धीरे-धीरे पूरे राज्य में लोग मंगलवार का व्रत रखने लगे। हनुमान जी की भक्ति के कारण मधुपुरी राज्य में सुख-शांति और समृद्धि का वास हुआ। प्रजा के मन से सभी भय समाप्त हो गए और लोग प्रेम और एकता के साथ रहने लगे।
राजा चंद्रसेन ने अपने अनुभव से सीखा कि ईश्वर की कृपा और भक्ति के बिना जीवन अधूरा है। उन्होंने अपने पूरे जीवनभर हनुमान जी की पूजा की और मंगलवार का व्रत रखा। उनकी भक्ति के कारण उनका राज्य दिन ब दिन और अधिक समृद्ध होता गया।
रानी पद्मावती ने भी स्त्रियों को हनुमान जी की भक्ति का मार्ग दिखाया और उन्हें व्रत करने के लिए प्रेरित किया। मधुपुरी राज्य के लोग हनुमान जी के आशीर्वाद से सुखी और सुरक्षित जीवन व्यतीत करने लगे।
कहते हैं कि जो भी व्यक्ति श्रद्धा और विश्वास के साथ मंगलवार का व्रत करता है और भगवान हनुमान जी की पूजा करता है, उसके जीवन से सभी बाधाएँ दूर हो जाती हैं। उसे भौतिक सुखों के साथ साथ आध्यात्मिक शांति भी प्राप्त होती है।
आशा है कि मंगलवार की यह दोनों कथाएँ आपको पसंद आएँगी।
🙏मंगलवार की व्रत कथा समाप्त🙏
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