प्रेम को समझने के लिए हमें उस गहराई में उतरना होगा, जहां शब्द समाप्त होते हैं और केवल अनुभव शेष रहता है। ओशो ने "ढाई अक्षर का प्रेम" कहकर जो रहस्य उद्घाटित किया, वह केवल भाषा का खेल नहीं है। यह प्रेम की उस अनंत यात्रा का संकेत है, जिसमें प्रेमी और प्रेमिका दोनों लीन हो जाते हैं, और केवल प्रेम शेष रहता है।
कबीर कहते हैं, “ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।” इस कथन में "ढाई" का गूढ़ अर्थ है। ढाई अक्षर प्रतीक है प्रेम के उस अधूरेपन का, जो इसे पूर्ण बनाता है। पूर्णता और अधूरापन यहां विरोधाभास नहीं हैं, बल्कि एक दूसरे के पूरक हैं। प्रेम को जितना भी प्राप्त करो, वह अधूरा ही लगता है। यही उसकी शाश्वतता है।
ओशो कहते हैं कि प्रेम कभी पूरा नहीं होता। यह बात सुनने में विरोधाभासी लग सकती है, लेकिन इसका अर्थ गहरा है। प्रेम का स्वभाव ही ऐसा है कि वह हमेशा अधूरा रहता है, और यही अधूरापन उसकी सबसे बड़ी ताकत है। क्योंकि जो चीज पूरी हो जाती है, वह समाप्त हो जाती है। किसी भी चीज का पूर्ण होना, उसके अंत का प्रतीक है।
जब प्रेमी अपने प्रेम की गहराई में उतरता है, तो वह पाता है कि प्रेम उसे और गहराई में खींचता चला जाता है। वह सोचता है कि वह संतुष्ट हो जाएगा, पर प्रेम उसे फिर से अधीर कर देता है। यह अधीरता ही प्रेम की अनंत यात्रा है। जैसे परमात्मा को पाने की कोई अंतिम सीमा नहीं है, वैसे ही प्रेम का भी कोई अंत नहीं। यह "ढाई" वही रहस्य है, जो प्रेम और परमात्मा को जोड़ता है।
कबीर ने "ढाई अक्षर" का प्रयोग प्रतीकात्मक रूप में किया है। ढाई का अर्थ केवल गणना में ढाई नहीं है। यह तीन की पूर्णता के करीब है, पर पूरी तरह तीन नहीं है। इसमें एक अपूर्णता है, और यही अपूर्णता प्रेम का सार है।
ढाई अक्षर का पहला अक्षर प्रेमी का है, दूसरा प्रेयसी का, और आधा अक्षर उन दोनों के बीच के अज्ञात को दर्शाता है। यह अज्ञात वह पुल है, जो प्रेमी और प्रेयसी को जोड़ता है। यही आधा अक्षर प्रेम को अनंत बनाता है। यह आधा अक्षर न केवल प्रेम की अपूर्णता को दर्शाता है, बल्कि उस अपूर्णता को उत्सव के रूप में भी प्रकट करता है।
ओशो कहते हैं, "जो भी चीज पूरी हो जाती है, वह मर जाती है। पूर्णता मृत्यु है।" प्रेम का अधूरापन ही उसे जीवित और शाश्वत बनाए रखता है। यही कारण है कि प्रेम कभी समाप्त नहीं होता। प्रेम का हर अनुभव अपने पीछे और अधिक अनुभव की प्यास छोड़ जाता है।
जो प्रेम को भोगता है, वह इसे जानता है। यह ऐसा जल है, जिसे जितना पिया जाए, उतनी ही प्यास बढ़ती है। लेकिन यह प्यास यातना नहीं है। यह एक आनंदमय प्यास है। प्रेमी इसी प्यास में आनंदित रहता है, क्योंकि यही प्यास उसे प्रेम की गहराई में और अधिक उतारती है।
ओशो प्रेम और काम के बीच गहरा भेद करते हैं। काम, शरीर का खेल है। इसकी एक सीमा है, और यह पूर्ण हो सकता है। प्रेम, आत्मा का संगीत है, जिसकी कोई सीमा नहीं है। काम का अंत है, पर प्रेम का अंत नहीं। यही कारण है कि प्रेम परमात्मा के स्वरूप का प्रतीक है।
कामवासना तृप्त कर सकती है, पर प्रेम तृप्त नहीं करता। काम का अनुभव भोगने के बाद शांति का अनुभव होता है, पर प्रेम का अनुभव भोगने के बाद और प्रेम करने की आकांक्षा जागती है। यही प्रेम की खूबसूरती है।
कबीर के अनुसार, “जब मैं था तब हरि नहीं, जब हरि है मैं नाहि।” यह कथन प्रेम की चरम अवस्था को प्रकट करता है। प्रेम में व्यक्ति अपने "मैं" को खो देता है। प्रेमी को लगता है कि वह प्रेयसी में लीन हो गया, और प्रेयसी को लगता है कि वह प्रेमी में खो गई। पर वास्तव में, दोनों ही खो जाते हैं। जो बचता है, वह केवल प्रेम है।
प्रेम में "मैं" और "तू" का भेद समाप्त हो जाता है। यह वह अवस्था है, जहां व्यक्ति अपनी पहचान खो देता है। यही प्रेम की पराकाष्ठा है। जब प्रेमी और प्रेयसी के बीच कोई अंतर नहीं रहता, तब केवल प्रेम बचता है।
ओशो इस अवस्था को सागर और बूंद के मिलन से समझाते हैं। जब बूंद सागर में गिरती है, तो बूंद भी समाप्त हो जाती है, और सागर भी। बूंद को लगता है कि सागर बचा, और सागर को लगता है कि बूंद बची। पर वास्तव में, दोनों ही समाप्त हो जाते हैं। जो बचता है, वह केवल प्रेम है।
यह सागर और बूंद का मिलन, प्रेमी और प्रेयसी के मिलन का प्रतीक है। जब यह मिलन होता है, तब कोई "मैं" नहीं बचता। केवल प्रेम बचता है। यही "ढाई अक्षर" का रहस्य है।
प्रेम और परमात्मा में कोई भेद नहीं है। जैसे परमात्मा को कभी पूरी तरह नहीं जाना जा सकता, वैसे ही प्रेम को भी पूरी तरह अनुभव नहीं किया जा सकता। परमात्मा और प्रेम दोनों अनंत हैं। वे हमें बार-बार अपने भीतर खींचते हैं, और हर बार हम पाते हैं कि हमने उन्हें पूरी तरह जाना नहीं।
प्रेम परमात्मा का प्रतीक है। यह उस अज्ञात का अनुभव है, जो हमें अपनी सीमाओं से परे ले जाता है। प्रेम हमें हमारी आत्मा से परिचित कराता है। यह आत्मा और परमात्मा के बीच का पुल है। प्रेम का सार यही है कि यह दोनों को मिटा देता है और केवल वह रह जाता है, जो शाश्वत है।
कबीर कहते हैं, “प्रेम गली अति सांकरी, तामें दो न समाय।” प्रेम की गली इतनी संकरी है कि इसमें दो व्यक्तियों का अस्तित्व नहीं टिक सकता। यह प्रतीक है उस अवस्था का, जिसमें प्रेमी और प्रेयसी अपनी सीमाओं को छोड़कर एकत्व का अनुभव करते हैं।
सांकरी गली का अर्थ यह भी है कि प्रेम का मार्ग सरल नहीं है। यह त्याग, समर्पण और अहंकार के विसर्जन की मांग करता है। जब तक "मैं" और "तू" का भेद है, तब तक प्रेम अधूरा है। जैसे ही यह भेद मिटता है, प्रेम पूर्ण होता है। परंतु इस पूर्णता में भी एक अनंतता होती है।
ओशो कहते हैं, प्रेम में सबसे पहला कदम है अहंकार का त्याग। जब तक व्यक्ति "मैं" के घेरे में बंधा है, वह प्रेम का अनुभव नहीं कर सकता। प्रेम में प्रवेश का अर्थ है अपने अहंकार को छोड़ देना।
अहंकार व्यक्ति को अलग रखता है। यह दीवार की तरह है, जो हमें दूसरों से और परमात्मा से अलग करती है। प्रेम इस दीवार को तोड़ता है। जब दीवार टूटती है, तो व्यक्ति को अपने भीतर की अनंतता का अनुभव होता है। यही प्रेम की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
ओशो प्रेम और भक्ति को एक ही मार्ग के दो रूप मानते हैं। भक्ति, प्रेम का परिशुद्ध रूप है। जब प्रेम परमात्मा की ओर उन्मुख होता है, तो वह भक्ति बन जाता है।
भक्ति में व्यक्ति अपने प्रेम को किसी उच्चतर शक्ति के प्रति समर्पित करता है। यह समर्पण उसे अपने "मैं" से मुक्त करता है। प्रेम का यही रूप सबसे शुद्ध और उच्चतम है। इसमें कोई मांग नहीं होती, केवल देना होता है। प्रेमी केवल देना जानता है।
सामान्यतः प्रेम को हम मांग के रूप में देखते हैं। लोग कहते हैं, "मुझे प्रेम चाहिए।" परंतु सच्चा प्रेम कभी मांगता नहीं, वह केवल देता है।
जब प्रेमी केवल प्रेम देना जानता है, तो वह अपने भीतर की अपार ऊर्जा को प्रकट करता है। प्रेम में देना ही सबसे बड़ा सुख है। ओशो कहते हैं कि जब प्रेम मांग बनता है, तो वह कामवासना में परिवर्तित हो जाता है। प्रेम का शुद्ध रूप बिना किसी अपेक्षा के देना है।
ओशो प्रेम को समर्पण की चरम अवस्था मानते हैं। यह समर्पण केवल किसी व्यक्ति के प्रति नहीं है, यह सम्पूर्ण अस्तित्व के प्रति है। प्रेमी को हर वस्तु में, हर जीव में, हर क्षण में परमात्मा का अनुभव होता है।
जब प्रेमी अपने भीतर यह दृष्टि विकसित करता है, तो वह हर चीज में सौंदर्य देखता है। वह हर वस्तु को प्रेम करता है, क्योंकि उसे हर चीज में परमात्मा का अंश दिखाई देता है। यही प्रेम का आध्यात्मिक आयाम है।
प्रेम केवल भावनाओं का खेल नहीं है। यह साधना है। यह साधना हमें भीतर की गहराई में ले जाती है। जैसे-जैसे हम प्रेम में गहरे उतरते हैं, हम अपने वास्तविक स्वरूप से परिचित होते हैं।
प्रेम में व्यक्ति को अपना वास्तविक "स्व" खोजना होता है। यह केवल दूसरों के प्रति आकर्षण नहीं है। यह आत्मा का परमात्मा से संवाद है। प्रेम हमें हमारी सीमाओं से परे ले जाता है और असीमता का अनुभव कराता है।
ओशो कहते हैं, प्रेम का अधूरापन ही उसकी अनंतता का कारण है। यदि प्रेम पूरा हो जाए, तो वह समाप्त हो जाएगा। परंतु यह अधूरापन कभी समाप्त नहीं होता। यह अधूरापन हमें बार-बार प्रेम की ओर खींचता है।
यह अधूरापन प्रेमी को उसके अस्तित्व से परे ले जाने का साधन है। यह उसे उस अज्ञात की ओर ले जाता है, जहां प्रेम और परमात्मा एक हो जाते हैं। यह अधूरापन आनंद का स्रोत है।
ओशो प्रेम और काम के अंतर्संबंध को भी स्पष्ट करते हैं। काम, प्रेम का सबसे निचला स्तर है। यह शारीरिक आकर्षण पर आधारित है। परंतु यदि यह शुद्ध हो जाए, तो यह प्रेम में बदल सकता है।
प्रेम, काम का शुद्ध और परिष्कृत रूप है। जब काम केवल शरीर तक सीमित नहीं रहता और आत्मा तक पहुंचता है, तो यह प्रेम बन जाता है। प्रेम वह ऊर्जा है, जो हमें हमारे शारीरिक और मानसिक स्तरों से ऊपर उठाती है।
ओशो कहते हैं कि प्रेम मृत्यु का अभ्यास है। प्रेम में व्यक्ति अपने "स्व" को खो देता है। यह मरने का ही एक प्रकार है। परंतु यह मृत्यु नहीं है, यह एक नया जन्म है।
जब व्यक्ति प्रेम में अपने अहंकार को त्याग देता है, तो वह अपनी सच्ची आत्मा से परिचित होता है। यह मृत्यु नहीं, बल्कि एक नवीन जीवन है।
ओशो का "ढाई अक्षर" का दर्शन केवल प्रेम तक सीमित नहीं है। यह जीवन के अंतिम सत्य की ओर इशारा करता है। यह हमें सिखाता है कि जीवन का सार अधूरेपन में है।
जैसे प्रेम अधूरा रहता है, वैसे ही जीवन भी। पूर्णता की खोज जीवन को समाप्त कर देती है। अधूरापन जीवन और प्रेम को अनंत बनाता है। यही "ढाई अक्षर" का सबसे गहन अर्थ है।
प्रेम कोई साधारण अनुभव नहीं है। यह मनुष्य को उसकी सीमाओं से मुक्त करने वाला और परमात्मा से जोड़ने वाला माध्यम है। "ढाई अक्षर" प्रेम की इस अनंत यात्रा का प्रतीक है। ओशो के शब्दों में, प्रेम का कोई अंत नहीं है। यह एक ऐसी यात्रा है, जो व्यक्ति को आत्मा के गहनतम स्तर तक ले जाती है। प्रेम, परमात्मा का सबसे निकटतम अनुभव है। यही कारण है कि ओशो इसे "ढाई अक्षर का प्रेम" कहते हैं। ओशो की दृष्टि में प्रेम, जीवन की सबसे बड़ी साधना है। यह साधना हमें हमारी सीमाओं से मुक्त करती है और अनंत का अनुभव कराती है। यही प्रेम का वास्तविक अर्थ है। यही उसका अंतिम सत्य है।
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