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कर्ण का जन्म कैसे हुआ था और उसके माता-पिता कौन थे?

कर्ण का जन्म कैसे हुआ था और उसके माता-पिता कौन थे? चलिए, कुरुक्षेत्र की रणभूमि में, अर्जुन और भगवान श्री कृष्ण के बीच संवाद कथा के माध्यम से जानें।

महाभारत के युद्ध में कुरुक्षेत्र की रणभूमि में, अर्जुन और भगवान श्री कृष्ण के मध्य एक शांत क्षण था। युद्ध की भीषणता ने हर हृदय को कंपा दिया था, परंतु इस समय श्री कृष्ण अर्जुन को एक ऐसे सत्य से अवगत कराने वाले थे जो न केवल अर्जुन के जीवन, बल्कि सम्पूर्ण महाभारत की कथा को नया अर्थ देगा।

श्री कृष्ण, जो अपने रथ को चलाते हुए अर्जुन के साथ खड़े थे, कुछ क्षणों के लिए रुके। उन्होंने अर्जुन की ओर देखा। अर्जुन की आंखों में केवल युद्ध का भयंकर आक्रोश और दुविधा झलक रही थी। इस क्षण में कृष्ण ने अपनी ममतामयी मुस्कान के साथ अर्जुन से कहा, “पार्थ, क्या तुम्हें ज्ञात है कि इस युद्ध के तुम्हारे सबसे बड़े शत्रु कर्ण की वास्तविकता क्या है?”

अर्जुन ने विस्मय और उत्सुकता से पूछा, “मधुसूदन, कर्ण तो अधर्म के पक्ष में खड़ा है। वह दुर्योधन का मित्र है और उसने सदैव हमें अपमानित किया है। उसकी वास्तविकता से मेरा क्या लेना-देना?”

कृष्ण ने गहरी सांस ली और बोले, “पार्थ, यह सत्य इतना सरल नहीं है जितना तुम देख रहे हो। इस सत्य को समझने के लिए हमें समय के प्रवाह में लौटना होगा। सुनो, मैं तुम्हें कर्ण के जन्म की कथा सुनाता हूं।”

यह वह समय था जब कुंती, तुम्हारी माता, अपने यौवन में थीं। उनके पिता, महाराज शूरसेन, ने कुंती को एक समय ऋषि दुर्वासा की सेवा में लगा दिया था। ऋषि दुर्वासा अपने कठोर स्वभाव और असाधारण तपस्या के लिए प्रसिद्ध थे। कुंती ने उनकी सेवा निष्ठा और समर्पण से की, जिससे प्रसन्न होकर ऋषि ने उन्हें एक वरदान दिया।

ऋषि दुर्वासा ने कहा, “कुमारी, मैं तुम्हें एक ऐसा मंत्र देता हूं जिससे तुम किसी भी देवता का आह्वान कर सकती हो, और वह देवता तुम्हें अपनी संतान के रूप में वरदान देंगे। परंतु इसे सोच-समझकर उपयोग करना।”

कुंती ने मंत्र को अपने मन में रख लिया, परंतु एक युवा और उत्सुक मन से उन्होंने उस मंत्र की शक्ति को आजमाने की ठानी। एक दिन प्रातःकाल, जब सूर्य अपनी स्वर्णिम किरणों से धरती को आलोकित कर रहे थे, कुंती ने सूर्य देव का स्मरण करते हुए वह मंत्र पढ़ा। तुरंत ही सूर्य देव उनके समक्ष प्रकट हुए।

सूर्य देव ने कुंती से कहा, “देवी, आपने मुझे आह्वान किया है। अब मैं आपको एक पुत्र का वरदान दूंगा। यह पुत्र दिव्य कवच और कुंडल के साथ जन्म लेगा, और अजेय होगा।”

कुंती भयभीत हो गईं। वह समझ नहीं पा रही थीं कि उन्होंने क्या किया है। उन्होंने सूर्य देव से प्रार्थना की, “हे प्रभु, मैं अभी अविवाहित हूं। यदि मैंने एक संतान को जन्म दिया तो यह समाज के नियमों का उल्लंघन होगा। कृपा कर मुझे क्षमा करें और इस वरदान को वापस लें।”

परंतु सूर्य देव बोले, “देवी, यह वरदान वापस नहीं लिया जा सकता। यह नियति है। आप एक महान पुत्र को जन्म देंगी, जो इतिहास के पन्नों में अपना स्थान बनाएगा। चिंता न करें, यह सब देवताओं की इच्छा से हो रहा है।”

कुछ समय बाद, कुंती ने एक पुत्र को जन्म दिया। वह पुत्र असाधारण रूप से तेजस्वी और बलशाली था। उसके शरीर पर दिव्य कवच और कुंडल चमक रहे थे। परंतु कुंती अपने सामाजिक प्रतिष्ठा और भय के कारण उस पुत्र को स्वीकार नहीं कर पाईं। उन्होंने गहरे हृदय दुख के साथ उसे एक टोकरी में रखा और गंगा नदी में प्रवाहित कर दिया। यह उनके जीवन का सबसे कठिन निर्णय था।

कर्ण को गंगा की लहरों में बहते हुए अधिरथ नामक सारथी और उसकी पत्नी राधा ने पाया। वे संतान सुख से वंचित थे और इस दिव्य बालक को पाकर अत्यंत प्रसन्न हुए और उसे अपने पुत्र के रूप में अपनाया। उन्होंने उसका नाम कर्ण रखा। अधिरथ हस्तिनापुर के राजा धृतराष्ट्र के सारथी थे, इसलिए कर्ण का बचपन एक साधारण परिवार में बीता।

कर्ण का पालन पोषण अत्यंत स्नेह और साधारण परिवेश में हुआ। किंतु बचपन से ही उसमें एक अद्भुत प्रतिभा थी। वह सूर्य की भांति तेजस्वी और बलवान था। अपने माता पिता का वह बड़ा आदर करता था, परंतु उसके मन में यह प्रश्न सदैव उठता था कि वह कौन है? उसका असली परिचय क्या है? यह प्रश्न उसे अंदर ही अंदर विचलित करता रहता था। परंतु उसे हमेशा यह अहसास रहा कि समाज ने उसे सूतपुत्र होने के कारण स्वीकार नहीं किया।

यहीं से उसके भीतर एक गहरी पीड़ा और क्रोध जन्मा। उसे लगता था कि उसके साथ अन्याय हुआ है। यही पीड़ा उसे दुर्योधन के पक्ष में ले गई, जिसने उसे अंगदेश का राजा बनाया और उसे सम्मान दिया।

इतना कहने के बाद कृष्ण ने अर्जुन की ओर देखा। उनकी आंखों में करुणा और गहराई थी। उन्होंने कहा, “पार्थ, कर्ण वही पुत्र है जिसे कुंती ने त्याग दिया था। वह तुम्हारा बड़ा भाई है। तुम जिस पर अपने तीर चलाने वाले हो, वह तुम्हारे ही रक्त का हिस्सा है।”

यह सुनकर अर्जुन स्तब्ध रह गए। उनका धनुष हाथ से छूट गया। उन्होंने कहा, “मधुसूदन, यह सत्य क्यों आज तक छिपा रहा? यदि कर्ण मेरे भाई हैं, तो क्यों उन्होंने सदैव हमारा अपमान किया और अधर्म का साथ दिया?”

कृष्ण मुस्कुराए और बोले, “इसका उत्तर भी समय देगा, पार्थ। सत्य सदैव जटिल होता है। कर्ण की पीड़ा, उसका संघर्ष और उसका निर्णय – यह सब उसकी नियति का हिस्सा था। परंतु यह जानना आवश्यक था कि अधर्म से लड़ते हुए तुम सत्य से परिचित हो।"  

अर्जुन का मन द्वंद्व में था। कुरुक्षेत्र की रणभूमि में खड़े हुए उन्हें यह जानकर विश्वास नहीं हो रहा था कि कर्ण उनका सगा बड़ा भाई है। उनकी आंखों में एक अजीब सी बेचैनी थी। उनके भीतर एक प्रश्न कौंध रहा था – “यदि कर्ण मेरा भाई है, तो उसका जीवन इतना त्रासदीपूर्ण क्यों था? क्यों उसे सदैव अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ा?”

श्री कृष्ण ने अर्जुन के इस अंतर्द्वंद्व को भांप लिया। उन्होंने अर्जुन को समझाते हुए कहा, “पार्थ, कर्ण का जीवन स्वयं नियति का खेल था। उसे जो पीड़ा, जो अपमान मिला, वह उसके जन्म के रहस्य और समाज के अधिनियमों से जुड़ा हुआ है। आओ, मैं तुम्हें कर्ण के जीवन के आगे की कथा सुनाता हूं।”

कर्ण अपने बाल्यकाल से ही महान योद्धा बनने का सपना देखता था। किंतु समाज में सूतपुत्र होने के कारण उसे शिक्षा के समुचित अवसर नहीं मिले। जब वह आचार्य द्रोण और परशुराम जैसे गुरुओं के पास गया, तो उन्होंने उसे उसके जन्म के कारण अस्वीकार कर दिया।

परंतु अपनी इच्छाशक्ति के बल पर कर्ण ने परशुराम को गुरु बनाने का निश्चय किया। उसने परशुराम से स्वयं को ब्राह्मण बताकर शिक्षा प्राप्त की। परशुराम ने उसे महान अस्त्र शस्त्र विद्या सिखाई और उसे अपने सबसे योग्य शिष्य के रूप में देखा।

एक दिन जब परशुराम थके हुए थे, तो वे कर्ण की गोद में सिर रखकर सो गए। उसी समय एक कीड़ा कर्ण की जांघ पर आ बैठा और उसे काटने लगा। कर्ण ने उस दर्द को सहन किया और परशुराम की निद्रा में विघ्न नहीं आने दिया। जब परशुराम जागे और कर्ण की जांघ से रक्त बहता देखा, तो उन्होंने पूछा, “पुत्र, तुमने मुझे क्यों नहीं जगाया? यह सहन शीलता असामान्य है। क्या तुम वास्तव में ब्राह्मण हो?”

कर्ण परशुराम से अधिक झूठ नहीं बोल सका। उसने सच्चाई बता दी कि वह सूत पुत्र है। यह सुनकर परशुराम क्रोधित हो गए। उन्होंने कर्ण को श्राप दिया, “जब तुम अपने जीवन के सबसे महत्वपूर्ण क्षण में अपने शस्त्र का उपयोग करना चाहोगे, तब यह ज्ञान तुम्हें विस्मृत हो जाएगा।”

कर्ण ने यह श्राप स्वीकार कर लिया। वह जानता था कि उसने झूठ बोलकर शिक्षा प्राप्त की थी, और यह उसका दंड था।

परशुराम के श्राप के बाद, कर्ण अपने जीवन में आगे बढ़ा। परंतु एक और दुर्भाग्य उसका इंतजार कर रहा था। एक बार अभ्यास करते समय, उसने अनजाने में एक ब्राह्मण की गाय का वध कर दिया। गाय का स्वामी, जो एक ब्राह्मण था, क्रोधित होकर कर्ण को श्राप दिया, “तुम्हारी मृत्यु उसी प्रकार होगी जैसे मेरी गाय तड़प तड़प कर मरी है। युद्धभूमि में तुम्हारा रथ धरती में धंस जाएगा, और तुम असहाय होकर अपने प्राण त्यागोगे।"

कर्ण के जीवन पर इन श्रापों ने गहरा प्रभाव डाला। वह जानता था कि उसका जीवन संघर्ष और पीड़ा से भरा होगा, फिर भी उसने कभी हार नहीं मानी।

श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा, “पार्थ, यह सब होने के बाद भी कर्ण ने अपने धर्म का पालन किया। किंतु उसके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण क्षण तब आया, जब तुम्हारी माता कुंती ने उसे युद्ध से पहले मिलने का निर्णय लिया।”

अर्जुन चौंके और बोले, “मधुसूदन, माता कुंती कर्ण से मिली थीं? यह कैसे संभव है?”

श्री कृष्ण ने सिर हिलाते हुए कहा, “हां, कुंती ने कर्ण को अपना पुत्र होने का सत्य बताने का निर्णय लिया। उन्होंने सोचा कि शायद यह सत्य जानकर कर्ण दुर्योधन का साथ छोड़ देगा और पांडवों के पक्ष में आ जाएगा।”

युद्ध से ठीक पहले, जब कर्ण गंगा किनारे अपनी प्रार्थना में मग्न था, कुंती उसके पास गईं। उन्होंने बड़े संयम और दया के साथ कर्ण से कहा, “पुत्र, मैं तुम्हारी जन्म दात्री हूं। मैं वही कुंती हूं, जिसने तुम्हें जन्म दिया और अपने समाज के भय से त्याग दिया। तुम सूत पुत्र नहीं हो, तुम सूर्य पुत्र हो और पांडवों के सबसे बड़े भाई हो।”

कर्ण यह सुनकर स्तब्ध रह गया। उसके जीवन का सबसे बड़ा रहस्य उसके सामने था। परंतु उसके मन में पीड़ा और क्रोध का तूफान उठ खड़ा हुआ। उसने कहा, “माता, आपने अपने भय और समाज के बंधनों के कारण मुझे त्याग दिया। अब, जब मैं अपने अस्तित्व की लड़ाई में अपने स्वाभिमान और सम्मान के लिए खड़ा हूं, आप मुझे अपना पुत्र बताने आई हैं? यह अन्याय है।”

कुंती ने अपनी गलती स्वीकार की और कर्ण से प्रार्थना की, “पुत्र, यह सत्य है कि मैंने तुम्हारे साथ अन्याय किया। परंतु अब मैं चाहती हूं कि तुम अपने भाइयों के साथ युद्ध न करो। वे तुम्हारे छोटे भाई हैं। कृपया दुर्योधन का साथ छोड़कर अपने भाइयों के साथ आ जाओ।”

कर्ण ने गहरी सांस ली और कहा, “माता, मैं आपकी बात का सम्मान करता हूं। परंतु दुर्योधन ने मुझे उस समय अपनाया जब पूरी दुनिया ने मुझे अस्वीकार कर दिया। उसने मुझे राजा बनाया, मुझे मान सम्मान दिया। मैं अब उसे धोखा नहीं दे सकता। यह मेरा धर्म है।”

कर्ण ने कुंती से एक वचन लिया। उसने कहा, “माता, मैं वचन देता हूं कि युद्ध में मैं केवल अर्जुन के साथ लड़ूंगा। मैं आपके अन्य पुत्रों पर हाथ नहीं उठाऊंगा। किंतु अर्जुन और मेरे बीच यह युद्ध अवश्य होगा। यह मेरी नियति है।”

कुंती ने भारी हृदय से यह वचन स्वीकार किया और वहां से चली गईं।

कृष्ण ने अर्जुन से कहा, “पार्थ, यही वह क्षण था जिसने कर्ण को हमेशा के लिए दुर्योधन के पक्ष में बांध दिया। उसने अपने धर्म और वचन का पालन किया, भले ही उसे अपनी जान की कीमत क्यों न चुकानी पड़ रही हो।”

इतना सब जानने के बाद कर्ण और अर्जुन के बीच महायुद्ध शुरू हो चुका था। युद्ध के दौरान, कर्ण ने अपने जीवन के अंतिम क्षण तक अपने वचन, अपने सम्मान और अपने धर्म का पालन किया। वह अर्जुन के साथ भीषण युद्ध में लड़ा। परंतु उसी समय, परशुराम और ब्राह्मण के श्राप ने अपना प्रभाव दिखाया। कर्ण का रथ धरती में धंस गया, और वह अपने शस्त्र का उपयोग करने में असमर्थ हो गया। अर्जुन ने कृष्ण के निर्देश पर कर्ण का वध किया।

जब कर्ण के प्राण पांडवों के तीर से निकले, तब अर्जुन के भीतर एक अजीब सी शांति और दुख था। उसे अब समझ में आया कि कर्ण केवल एक शत्रु नहीं, बल्कि एक ऐसा योद्धा था जिसने अपने संपूर्ण जीवन में केवल संघर्ष और पीड़ा देखी।

कर्ण की मृत्यु के बाद श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा, “पार्थ, कर्ण केवल तुम्हारा शत्रु नहीं था। वह एक ऐसा व्यक्ति था जो अपने अधिकार और सम्मान के लिए लड़ता रहा। उसका जीवन त्याग, धर्म और वचन का प्रतीक था। इसलिए, युद्ध के अंत में, तुम उसे केवल एक शत्रु के रूप में मत देखना, बल्कि उसे एक ऐसे योद्धा के रूप में सम्मान देना जिसने अपने धर्म का पालन किया।”

अर्जुन के मन में अब कर्ण के लिए केवल करुणा और सम्मान बचा था। उन्होंने युद्ध में अपने बड़े भाई को खो दिया था, परंतु उनके भीतर एक सीख भी थी – सत्य, धर्म और वचन का पालन ही एक योद्धा का सबसे बड़ा कर्तव्य है। जय श्री कृष्णा!

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